बहुत पहले हरिजनों के मंदिर-प्रवेश पर रोक लगाने की वकालत करनेवालों ने दलील दी थी कि चपरासी का काम चपरासी और प्रिंसिपल का काम प्रिंसिपल करेगा. चपरासी प्रिंसिपल का काम नहीं कर सकता यह बात सही है. किंतु चपरासी प्रिंसिपल बन ही नहीं सकता, यह ध्रुववाद किस आधार पर टिकेगा?
चपरासी का काम करनेवाला व्यक्ति भी अपनी लगन और मेहनत से प्रिंसिपल की योग्यता पा सकता है. उच्च पदों पर कार्यरत अनेक व्यक्ति अपने बचपन में बहुत साधारण जीवन जीनेवालों में से है. अनेक महापुरुष साधारण परिवेश में जीकर असाधारण बने हैं. ऐसी स्थिति में हरिजन-कुल में जन्म लेना ही किसी व्यक्ति या वर्ग की धार्मिकता में आड़े आये, यह बात समझ में नहीं आती. किसी जाति या केवल क्रियाकांडों के आधार पर कोई धर्म चल सकता है, यह सिद्धांत गलत है.
इससे धर्म के मूल पाये को ही खिसका दिया गया है. धर्म का पाया है चरित्र. चरित्र को गौण कर क्रियाकांडों को प्रमुखता देनेवाले ही कह सकते हैं कि महाजन सब हरिजनों से श्रेष्ठ हैं. एक ओर धर्म की श्रेष्ठता के नारे, दूसरी ओर उसके प्रति आस्था रखनेवाले लोगों का खुला तिरस्कार, ऐसी विवादास्पद स्थिति में कोई भी हरिजन ऐसे धर्म से चिपक कर क्यों रहेगा? समाज में खुली प्रताड़ना से दुखी होकर कोई हरिजन धर्म परिवर्तन की बात करता है, तो समाज में तहलका मच जाता है. जब तक धर्मगुरुओं का ऐसा दृष्टिकोण रहेगा, धर्म और समाज की छवि उजली नहीं हो सकती.
आचार्य तुलसी