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भीतर से मौन हो जाओ

हमारा जीवन बाहर से एक झंझावात है, एक अनवरत द्वंद्व है, एक उपद्रव है, एक संघर्ष है. लेकिन यह सिर्फ सतह पर है. जैसे सागर के ऊपर उन्मत्त और सतत संघर्षरत लहरें होती हैं. लेकिन यही सारा जीवन नहीं है. गहरे में एक केंद्र भी है. मौन, शांत. न कोई द्वंद्व, न कोई संघर्ष. केंद्र […]

हमारा जीवन बाहर से एक झंझावात है, एक अनवरत द्वंद्व है, एक उपद्रव है, एक संघर्ष है. लेकिन यह सिर्फ सतह पर है. जैसे सागर के ऊपर उन्मत्त और सतत संघर्षरत लहरें होती हैं. लेकिन यही सारा जीवन नहीं है. गहरे में एक केंद्र भी है. मौन, शांत. न कोई द्वंद्व, न कोई संघर्ष.
केंद्र में जीवन एक मौन और शांत प्रवाह है, जैसे कोई सरिता बिना संघर्ष, बिना कलह, बिना शोरगुल के बस बह रही हो.
उस अंतस केंद्र की ही खोज है. तुम सतह के साथ, बाह्य के साथ तादात्म्य बना सकते हो. फिर संताप और विषाद घिर आते हैं. हमने सतह के साथ और उस पर चलनेवाले कलह के साथ तादात्म्य बना लिया है. यदि केंद्र में अपनी जड़ें जमा सको, तो परिधि की अशांति भी सुंदर हो जायेगी. यदि भीतर से मौन हो सको तो बाहर की सब ध्वनियां संगीतमय हो जाती हैं. लेकिन यदि तुम आंतरिक केंद्र को, मौन केंद्र को नहीं जानते, यदि परिधि के साथ ही एकात्म हो तो विक्षिप्त हो जाओगे. सभी धार्मिक विधियां, योग विधियां तुम्हें पुन: उस केंद्र के संपर्क में ले आने के लिए हैं.
ये विधियां भीतर मुड़ने के लिए, अपने अंतस में इतना गहन विश्रम करने के लिए हैं कि बाह्य बिलकुल मिट जाये और केवल अंतस ही बचे. एक बार तुम जान जाओ कि कैसे पीछे मुड़ना है, कैसे स्वयं में उतरना है, तो कुछ कठिन नहीं रह जाता है. लेकिन यदि तुम्हें पता न हो, केवल परिधि के साथ मन के तादात्म्य का ही पता हो, तो बहुत कठिन है. स्वयं में विश्रम करना कठिन नहीं है, परिधि से तादात्म्य तोड़ना कठिन है.
– आचार्य रजनीश ‘ओशो’

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