इस संसार का कोई पदार्थ या व्यक्ति जितना समीप हो सकता है, उसकी अपेक्षा ईश्वर की निकटता और भी अधिक है. वह हमारी सांस के साथ प्रवेश करता है और अंग-अवयवों में प्राणवायु के रूप में प्रतिक्षण जीवन प्रदान करता है. हृदय की धड़कन उसी की रासलीला है. संभावित सोलह हजार नाडि़यों के साथ वही रमण करता है. अंत:करण में उसी का प्रवचन निरंतर चलता है.
ज्ञान-विज्ञान की विशालकाय पाठशाला उसी ने मस्तिष्क में चला रखी है. उसका अध्यापन ऐसा है जो कभी बंद ही नहीं होता. मनुष्य का व्यक्तित्व वस्तुत: उसी विराट का संक्षिप्त संस्करण है. इतना सब होते हुए भी उसकी समीपता की अनुभूति के साथ-साथ जिस परम संतोष और परम आनंद का अनुभव होना चाहिए, वह कभी हुआ ही नहीं. ईश्वर की समीपता को जीवन-मुक्ति भी कहते हैं.
ईश्वर के लोक में रहना, उसके समीप रहना, उसमें समाविष्ट होना उस स्थिति की ओर संकेत है, जिसमें मनुष्य की भीतरी चेतना और बाहरी क्रिया उतनी उत्कृष्ट बन जाती है, जितनी ईश्वर की होती है. अपनी चेतना सत्ता को ईश्वरीय चेतना के सदृश बना देने में किसे कितनी सफलता मिली, इसका परिचय उसके चिंतन का स्तर परख कर प्राप्त किया जा सकता है. आंखों से देवदर्शन के लिए की जानेवाली तीर्थयात्रा और सूक्ष्म नेत्रों से प्रभु दर्शन के लिए होनेवाली ध्यान साधना का अपना महत्त्व है. इन सीढि़यों को पार करते हुए हमें उसी स्थान तक पहुंचना पड़ेगा, जहां ईश्वर की समीपता मिलती है.
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य