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अर्णब और अदालत
दिल्ली उच्च न्यायालय ने मशहूर पत्रकार अर्णब गोस्वामी और उनके रिपब्लिक टीवी को नोटिस जारी करते हुए कहा है कि सुनंदा पुष्कर की मौत के मामले में कांग्रेस के नेता शशि थरूर पर अपमानजनक टिप्पणी करने से परहेज कीजिए. अदालत का निर्देश वैसे तो किसी एक पत्रकार और एक टीवी चैनल को लक्ष्य करके आया […]
दिल्ली उच्च न्यायालय ने मशहूर पत्रकार अर्णब गोस्वामी और उनके रिपब्लिक टीवी को नोटिस जारी करते हुए कहा है कि सुनंदा पुष्कर की मौत के मामले में कांग्रेस के नेता शशि थरूर पर अपमानजनक टिप्पणी करने से परहेज कीजिए.
अदालत का निर्देश वैसे तो किसी एक पत्रकार और एक टीवी चैनल को लक्ष्य करके आया है, लेकिन इसकी नेकनीयती का पूरे मीडिया जगत को सम्मान करना चाहिए और कोशिश हर चंद इस नसीहत पर अमल की होनी चाहिए. अदालत ने अपनी नसीहत में पत्रकारिता के बुनियादी उसूल की तरफ ध्यान दिलाया है. पत्रकार खोजी होता है, सार्वजनिक जीवन में जो कुछ अच्छा या बुरा जान पड़े उसके प्रति लोगों को आगाह करना उसका कर्तव्य है, परंतु ऐसा करते हुए उसे हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि वह न तो सच्चाई का एकमात्र प्रवक्ता है और न ही देश की जनता ने उसे अंतिम रूप से फैसला सुनाने का कोई विशेष अधिकार दिया है.
पत्रकार हद से हद इतना भर कर सकता है कि किसी मसले की सच्चाई को लेकर जितनी दावेदारियां हैं, सबको उन्हीं के शब्दों में लोगों के सामने पेश कर दे. ध्यान हमेशा इस बात पर रहना चाहिए कि तथ्यों को खोज-बीन और एक कथानक के रूप में उनकी बुनावट करते वक्त मीडिया के हाथों अलग से सच्चाई का निर्माण न हो जाये. पत्रकार खबर पेश तो कर सकता है, लेकिन खबर को तथ्यों के सहारे गढ़ते वक्त उसमें अपनी तरफ से मिला नहीं सकता. खबर में मिलावट की सूरत में पत्रकार पर किसी एक मसले, व्यक्ति, संस्था या प्रवृत्ति के प्रति पक्षपाती होने का आरोप लगेगा.
शशि थरूर की पत्नी की मौत को लेकर बहुत से प्रश्न अनुत्तरित हैं और इसके आधार पर बेशक अर्णब के वकील अदालत में दलील दे सकते हैं कि अपने चैनल के जरिये अर्णब ने मामले पर तथ्यपरक बातें कही हैं, पर यहां ध्यान रखने की बात यह है कि खबर के तथ्य धरती पर अनाज के दानों की तरह नहीं बिखरे होते. तथ्यों को खोजना होता है और इस खोजबीन में अपना पूर्वाग्रह शामिल हो सकता है.
अर्णब को मिले अदालती निर्देश की लीक पर चल कर पूरे मीडिया जगत के बारे में कहा जा सकता है कि खबरों के लिए तथ्यों का चयन करते वक्त अपना पूर्वाग्रह आड़े नहीं आना चाहिए. तफ्तीश का काम पुलिस का है, तफ्तीश के आधार पर फैसले सुनाने का काम अदालत का. सबके काम करने के अपने-अपने दायरे हैं और इन दायरों के उसूल भी. अधिकारों और जिम्मेवारियों के बंटवारे के इसी सिद्धांत से लोकतंत्र चलता और कामयाब होता है. मीडिया अपने उसूलों पर चल कर ही भरोसेमंद हो सकता है.
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