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शराबबंदी से स्वार्थों का संघर्ष
प्रो फैजान मुस्तफा वाइस चांसलर, नलसर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ, हैदराबाद भारतीय संविधान के भाग चार में विहित ‘राज्य की नीति के निदेशक तत्व’ का अनुच्छेद 47 कहता है कि ‘राज्य, विशिष्टतया, मादक पेयों के, औषधीय प्रयोजनों के अलावा, उपभोग का प्रतिषेध करने के लिए कदम उठायेगा.’ इस संबंध में उल्लेखनीय यह है कि इस अनुच्छेद […]
प्रो फैजान मुस्तफा
वाइस चांसलर, नलसर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ, हैदराबाद
भारतीय संविधान के भाग चार में विहित ‘राज्य की नीति के निदेशक तत्व’ का अनुच्छेद 47 कहता है कि ‘राज्य, विशिष्टतया, मादक पेयों के, औषधीय प्रयोजनों के अलावा, उपभोग का प्रतिषेध करने के लिए कदम उठायेगा.’ इस संबंध में उल्लेखनीय यह है कि इस अनुच्छेद में मादक पेयों पर पूरे प्रतिबंध की बात कही गयी है, न कि केवल राष्ट्रीय राजमार्गों पर शराबबंदी लागू करने की. इसके अलावा, नशाबंदी के साथ ही, संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 44 में समान सिविल संहिता लागू करने के मामले में भी राज्य के लिए बाध्यकारी भाषा (संविधान के लिए अंगरेजी के मूल पाठ में ‘शैल इंडेवर’ प्रयुक्त हुआ है) का इस्तेमाल किया है.
मगर, आजादी के इतने वक्त बाद अब तक कितने राज्यों ने नशाबंदी लागू की? 2014 में भाजपा ने ही गुजरात मॉडल को पूरे देश में लागू करने का संकल्प क्यों व्यक्त नहीं किया? क्यों केवल राजमार्गों पर सीमित नशाबंदी के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश का भी हमारा मीडिया विरोध कर रहा है? न्यायालय ने उचित ही कहा कि भारत जब आर्थिक महाशक्ति होने की राह पर है, तो इसे विश्व की ‘दुर्घटना राजधानी’ होने के संदिग्ध ठप्पे से बचना ही चाहिए. इस मुद्दे पर मीडिया दोहरे मानकों का शिकार है और उसकी सहानुभूति भी शराब लॉबी के ही साथ है.
पिछले साल 15 दिसंबर को के बालू के वाद में अपने ही दिये फैसले पर सुप्रीम कोर्ट को पुनर्विचार इसलिए करना पड़ा, क्योंकि राजमार्गों पर शराब विक्रेताओं के लिए सभी राज्यों समेत खुद केंद्र की भी सहानुभूति थी.
31 मार्च को कोर्ट ने अपने पूर्व आदेश को सुधारते हुए राजमार्गों के 500 मीटर के दायरे में शराब विक्रय पर प्रतिबंध की बजाय उसे 20,000 से कम जनसंख्या के शहरों के राजमार्गों के लिए घटा कर 220 मीटर के दायरे में प्रतिबंधित कर दिया. हिमाचल प्रदेश, सिक्किम तथा मेघालय को भी उनकी भौगोलिक स्थिति की वजह से ही प्रतिबंध-मुक्त कर दिया गया.
साल 2014 में राष्ट्रीय तथा राज्य राजमार्गों पर हुई 2.37 लाख दुर्घटनाओं में 87,264 लोग मारे गये, जबकि 2.59 लाख व्यक्ति आहत हुए. शराबखोरी एवं तिहरे तलाक समेत शादियां टूटने की वजह से हुई दुर्घटनाओं का सटीक ब्योरा तो उपलब्ध नहीं है, पर समान सिविल संहिता के समर्थन जैसी जोरदार दलीलें नशाबंदी के पक्ष में नहीं दी जातीं. अनुच्छेद 47 को लागू करने की दिशा में न्यायालय ने यह पहला कदम उठा कर उचित ही किया है. अनुच्छेद 44 के अंतर्गत समान सिविल संहिता एवं अनुच्छेद 48 के अंतर्गत गोवध जैसे केवल दो मुद्दों पर जितना अतिरिक्त बल दिया जा रहा है, वह उबाऊ है.
दूसरी ओर, लगभग पूरा राष्ट्र अनुच्छेद 47 को लागू किये जाने का विरोध कर रहा है. गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने राजमार्गों पर शराब का सेवन नहीं, बल्कि सिर्फ उसका विक्रय रोका है. केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा अब पर्यटन पर इसके प्रभाव को लेकर चिंतित हैं. अधिकतर यूरोपीय एवं अमेरिकी देश गोमांस खाते हैं, मगर हमने आनेवाले पर्यटकों की फिक्र तो कभी नहीं की?
पर, इस ऐतिहासिक आदेश की आलोचना में भी कुछ दम तो है. इसमें राजमार्गों पर शराब के नशे में ड्राइविंग रोक सकने की सामर्थ्य नहीं है और न्यायालय ने स्वयं ही यह स्वीकार भी किया कि अब लोग पर्याप्त मात्रा में शराब साथ लेकर यात्रा कर सकते हैं. यह तथ्य भी अपनी जगह कायम है कि लंबी दूरियां तय करने निकले लोगों को शराब की खरीद के लिए मात्र 500 मीटर की अतिरिक्त दूरी नापने से आखिर गुरेज ही कहां होगा?
सभी नीति निदेशक सिद्धांत ‘नीतिगत मुद्दे’ हैं, जिन्हें सरकार के ही भरोसे छोड़ना ठीक होगा.उनका जबरन क्रियान्वयन कराना न्यायालय का काम नहीं. सच तो यह है कि कभी-कभी ऐसे कदम सरकार के विभिन्न अंगों के बीच ‘शक्ति विभाजन’ के विरुद्ध जाते जैसे भी लगते हैं. यह मामला निश्चित रूप से अनुच्छेद 142 के अंतर्गत न्यायालय द्वारा अपने असाधारण अधिकारों का प्रयोग कर ‘पूर्ण न्याय’ करने के उपयुक्त भी नहीं था, जिसका इस्तेमाल काफी संयमित ढंग से वैसे ही मामलों में किया जाना है, जो न्यायालय के क्षेत्राधिकार में हैं और जिन्हें मौजूदा कानूनों के दायरे में संबोधित नहीं किया जा सकता.
मोटर यान अधिनियम- 1948 के अंतर्गत स्थापित राष्ट्रीय सड़क सुरक्षा परिषद् द्वारा 2004 के उस निदेश से इस मामले में सरकार की नीयत कागज पर तो साफ होती ही है, जिसने सरकारों को बार-बार यह सलाह दी कि वह ‘न केवल राष्ट्रीय राजमार्गों से शराब की दुकानें हटाये, बल्कि उसके किनारे शराब की दुकानों के नये लाइसेंस जारी करना भी तत्काल बंद करे.’ इसलिए, न्यायालय के आदेश को उसका न्यायिक हदों से साफ-साफ आगे जाने का मामला भी नहीं कहा जा सकता.
मीडिया ने इस आदेश की आलोचना रोजगार छिनने तथा राजस्व छीजने के आधार पर की है. चूंकि रेड वाइन (लाल शराब) सेहत के लिए भली मानी जाती है, इसलिए उस नजरिये से भी उसे यह आदेश नागवार गुजरा है. उत्तर प्रदेश में नयी सरकार के आने के बाद गरीब कसाइयों के रोजगार छिनने का अफसोस मीडिया को कतई नहीं हुआ. मांस के निर्यात से देश को हजारों करोड़ रुपयों के राजस्व की हानि पर गौर का वक्त भी उसे नहीं मिला.
मटन न खरीद पानेवाले गरीबों को मिलनेवाले प्रोटीन के नुकसान पर भी उसके आंसू नहीं गिरे. राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) के आदेश का अनुपालन न करने का दोषी होने पर भी सरकार के विरुद्ध उसने कुछ भी नहीं कहा. दोहरे मानक वाले भारतीय मीडिया की वैश्विक विश्वसनीयता यदि इतनी नीची है, तो इसमें किसी को कोई अचरज नहीं होना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट निश्चित ही एनजीटी से ऊपर है, मगर यह सबकी मंशा है कि उसका आदेश वापस हो. अनुच्छेद 143 के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट को अपनी राय देने के लिए निर्देशित करने की तैयारी है. यदि इससे भी शराब की बिक्री बहाल न हुई, तो शराब लॉबी के दबाव में यदि वित्त विधेयक नहीं, तो सामान्य विधेयक के जरिये ही यह आदेश पलटने के लिए संसदीय हस्तक्षेप भी संभव है.
(अनुवाद: विजय नंदन)
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