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लिफाफा तो देते जाओ
वीर विनोद छाबड़ा व्यंग्यकार हमारे ऑफिस के एक सहकर्मी मित्र रामेश्वर ने भाई की शादी के उपलक्ष्य में प्रीतिभोज का आयोजन रखा. हमें भी सपरिवार शामिल होने का न्यौता मिला. हम पहली बार जा रहे थे उनके घर. उस जमाने में मोबाइल तो बहुत दूर की बात थी, टेलीफोन भी इक्का-दुक्का होते थे. कार्ड हमने […]
वीर विनोद छाबड़ा
व्यंग्यकार
हमारे ऑफिस के एक सहकर्मी मित्र रामेश्वर ने भाई की शादी के उपलक्ष्य में प्रीतिभोज का आयोजन रखा. हमें भी सपरिवार शामिल होने का न्यौता मिला. हम पहली बार जा रहे थे उनके घर. उस जमाने में मोबाइल तो बहुत दूर की बात थी, टेलीफोन भी इक्का-दुक्का होते थे. कार्ड हमने नहीं रखा था. बस इतना याद था कि चरही हसन गंज के बगल वाली गली. एक साहब से पूछा तो उन्होंने एक गली की और इशारा कर दिया. हम जैसे ही गली में घुसे कि थोड़ी दूर पर रोशनी सजा पंडाल दिखा. यूरेका, यूरेका! मिल गया. एक दर्शनाभिलाषी प्रौढ़ सज्जन दिखे. हमने पूछा- यह राम… लेकिन बात पूरी होने से पहले ही उन्होंने हमें गले लगा लिया.
थोड़ी देर में ख्याल आया कि ऑफिस का कोई बंदा नहीं दिख रहा है और न रामेश्वर. हमने दर्शनाभिलाषी से उनके बारे में पूछा. उन्होंने हमें सर से पांव तक देखा. लगा भस्म कर देंगे. मिस्टर, यह रामप्रकाश की शादी का रिसेप्शन है. हमें दर्शनाभिलाषी के व्यवहार पर बहुत क्रोध आया. किसी तरह खुद को नियंत्रित किया. बड़े बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले.
थोड़ी दूर चले ही थे कि स्कूटर की हेडलाइट में हमें एक सूट-बूट वाला दिखा. हमने सोचा कि एक चांस और लिया जाये. भैया, आप रामेश्वर जी के घर जा रहे हैं? हमारा अनुमान सही निकला. उसने बताया आप ठीक जगह पर खड़े हैं. हम शंकित हुए- लेकिन चरही तो दिख नहीं रही. वह हंस दिया- चरही तो कब की गुम हो गयी. अब तो नाम बाकी है. चलियक मैं भी वहीं जा रहा हूं.
एक बार अगल-बगल दो जगह प्रीतिभोज के आयोजन थे. मित्र बाहर ही मिल गये. बहुत तपाक से मिले और बोले- अंदर जाकर जोड़े को आशीर्वाद दें और फोटो भी खिंचवायें. हमने उनकी आज्ञा का पालन किया और अपनी कमजोरी आलू की टिक्की पर टूट पड़े. तभी हमने गौर किया कि कोई जान-पहचान का नहीं दिख रहा. हमारा माथा ठनका. बाहर निकल कर दूसरे तंबू में घुसे. काटो तो खून नहीं. सही जगह तो यह है. तब हमने दूसरी बार कान पकड़े कि लिफाफा देने की जल्दबाजी न करो, पहले पुष्टि कर लो.
एक प्रीतिभोज में हमने सपत्नीक डट कर भोजन कर लिया. मित्र से विदा ली और सीधे घर पहुंच गये. जब हम पतलून बदल रहे थे, तो पता चला कि लिफाफा तो जेब में ही रह गया है.
पत्नी रोकती रही, लेकिन हम वसूल के पक्के. दस किलोमीटर उलटे पांव लौट कर ही माने. उस दिन के पश्चात हमने लिफाफा ऊपर शर्ट की जेब में रखना शुरू कर दिया. ताकि दूसरों को भी इबरत हासिल हो और अगर हम भूलें भी तो कोई याद दिला दे, फ्री का खाकर जा रहे हो? लिफाफा तो देते जाओ.
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