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आकलन में हुई बड़ी चूक

।।अवधेश कुमार।।(वरिष्ठ पत्रकार)देश इस घटना से आहत और क्षुब्ध है. सबके जेहन में यह सवाल उमड़ रहा है कि अगर नक्सली इतने नेताओं को इस तरह शहीद कर सकते हैं, तो आम लोगों की क्या औकात! 1967 में आरंभ नक्सली आंदोलन के पहले दौर से लेकर माओवाद के दूसरे दौर तक किसी राजनीतिक पार्टी पर […]

।।अवधेश कुमार।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
देश इस घटना से आहत और क्षुब्ध है. सबके जेहन में यह सवाल उमड़ रहा है कि अगर नक्सली इतने नेताओं को इस तरह शहीद कर सकते हैं, तो आम लोगों की क्या औकात! 1967 में आरंभ नक्सली आंदोलन के पहले दौर से लेकर माओवाद के दूसरे दौर तक किसी राजनीतिक पार्टी पर ऐसे हमले की यह सबसे बड़ी घटना है. हालांकि नेता पहले भी छत्तीसगढ़ और दूसरे राज्यों में माओवादियों का निशाना बने हैं. मार्च, 2009 में जगदलपुर से भाजपा सांसद बलराम कश्यप भी इनके हमले में मारे गये. लेकिन किसी राजनीतिक पार्टी के इतने बड़े कार्यक्रम पर ऐसा हमला पहले नहीं हुआ था. हां, प्रदेश से बाहर 2003 में आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू पर एक बड़ा हमला हुआ था.

कांग्रेस के लिए यह ऐसा आघात है, जिससे उबरना उसके लिए कठिन होगा. प्रदेश में उसके नेताओं के एक समूह का अंत हो गया है. परंतु यह कांग्रेस पर नहीं, राजनीतिक प्रतिष्ठान पर हमला है. ऐसे हमलों के बाद माओवादियों के संदर्भ में यह प्रश्न उभरता है कि आखिर वे कौन-सा लक्ष्य पाना चाहते हैं? लोकतांत्रिक व्यवस्था में यात्रओं और सभाओं के माध्यम से जनता के समक्ष जाना राजनीतिक दलों की स्वभाविक भूमिका है. इसे बारूद से खून और ध्वंस में बदलनेवाले माओवादियों ने फिर साबित किया है कि उनमें और बेरहम आतंकवादियों में ज्यादा अंतर नहीं है. माओ ने भी क्रांति के लिए कभी ऐसी हिंसा की वकालत नहीं की थी. लेकिन माओवादियों की आलोचना भर से ऐसी भयानक घटना का पूरा विश्लेषण नहीं हो सकता.

जो माओवादी मृतकों का पेट काट कर उसमें विस्फोटक लगा सकते हैं, चलती बस को उड़ा कर आम जनता को मौत की नींद सुला सकते हैं, उनसे किसी सभ्य भूमिका की उम्मीद कौन कर सकता है! इस बार प्रदेश के राजनीतिक प्रतिष्ठान के शीर्ष नेतृत्व को निशाना बना कर उन्होंने सीधे भारतीय राज व्यवस्था को चुनौती दी है. जितनी फौज उस इलाके में उतारी गयी है, उनसे संभव है कि कुछ हमलावर माओवादी भी पकड़े या मारे जाएं, लेकिन सबसे गौर करनेवाली बात ऐसी भयावह हिंसा में माओवादियों को मिली सफलता है. यह साफ है कि माओवाद के खतरे का अकलन कर रही एजेंसियों को इतने बड़े हमले की आशंका नहीं थी. यह बात माओवाद से संघर्ष में जुटी सरकार की रणनीति को गहरे प्रश्नों के घेरे में लाती है. यह बहुत अहम सवाल है कि जब माओवादियों ने मुख्यमंत्री रमन सिंह की विकास यात्र तथा कांग्रेस की परिवर्तन यात्र को लेकर धमकी दी थी तो खुफिया एजेंसियां उन धमकियों का समुचित आकलन करने में विफल क्यों हुईं?

हम इस नव माओवादी हिंसा से करीब डेढ़ दशक से जूझ रहे हैं. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मुख्यमंत्रियों तथा राज्य के मुख्यसचिवों एवं पुलिस अधिकारियों के सम्मेलन में हर बार इसे आंतरिक सुरक्षा का सबसे बड़ा खतरा बताते आ रहे हैं. 2012 की सरकारी रिपोर्ट कहती है कि सुरक्षाबलों ने 74 माओवादियों को मार गिराया तथा 1882 को गिरफ्तार किया. सुरक्षा बलों का आकलन था कि इससे माओवादियों की शक्ति काफी कमजोर हुई है. संभव है माओवादियों ने इसी धारणा को तोड़ने तथा यह संदेश देने के लिए कि वे अब भी मजबूत है, इस तरह का बड़ा हमला किया. वैसे सुरक्षा एजेंसियां भले माओवादियों के कमजोर होने की बातें करें, 2012 में ही उन्होंने 114 जवानों तथा तीन सौ नागरिकों को मौत की नींद सुला दी. यह उनके कमजोर होने का प्रमाण कैसे हो सकता है?

इतना बड़ा हमला अचानक, कमजोर योजना व संसाधन के जरिये नहीं हो सकता. बेहद संकरी दरभा घाटी में माओवादियों ने अपनी जानी-पहचानी शैली में घात लगा कर हमला किया- रास्ते पर पेड़ काट कर बाधा पैदा करना, काफिला रुकने पर बारूदी सुरंग विस्फोट एवं अंधाधुंध गोलीबारी, फिर कुछ को पकड़ लेना आदि. इसमें नया सिर्फ इतना था कि इस बार एक बड़ी राजनीतिक पार्टी के नेताओं के काफिले को निशाना बनाया गया. सुरक्षा इंतजामों और खुफिया एजेंसियों की यह बड़ी विफलता है. माओवादी लंबे समय से हमले की योजना बनाते रहे, अभ्यास करते रहे, बारूदी सुरंगें बिछाते रहे, आंध्र के माओवादी छत्तीसगढ़ पहुंचते रहे, लेकिन खुफिया एजेंसियों को भनक तक नहीं लगी.

खबरों के मुताबिक माओवादियों के हमले के ढाई घंटे बाद तक भी पुलिस व अर्धसैनिक बल के जवान वहां नहीं पहुंचे थे. माओवादियों के खिलाफ हमारी लड़ाई कितनी चुस्त और सशक्त है, इसके प्रमाण के लिए इससे ज्यादा बताने की आवश्यकता नहीं. देश के सामने यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों हुआ?

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