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देश के बजट में किसान!
चंदन श्रीवास्तव एसोसिएट फेलो, कॉमनकॉज वित्त मंत्री का बजट-भाषण का मुख्य हिस्सा तकरीबन साढ़े 12 हजार शब्दों का था, लेकिन इतने लंबे भाषण में किसानों का जिक्र कितना था? यह सवाल पूछना बनता है, क्योंकि जब आप देश के नौ करोड़ किसान परिवारों की बात करते हैं, तो दरअसल यह दो-तिहाई भारत का सवाल बन […]
चंदन श्रीवास्तव
एसोसिएट फेलो, कॉमनकॉज
वित्त मंत्री का बजट-भाषण का मुख्य हिस्सा तकरीबन साढ़े 12 हजार शब्दों का था, लेकिन इतने लंबे भाषण में किसानों का जिक्र कितना था? यह सवाल पूछना बनता है, क्योंकि जब आप देश के नौ करोड़ किसान परिवारों की बात करते हैं, तो दरअसल यह दो-तिहाई भारत का सवाल बन जाता है.
अपने लंबे बजट भाषण का बस छह प्रतिशत (754 शब्द) हिस्सा वित्त मंत्री ने खेती-किसानी यानी दो-तिहाई भारत पर खर्च किया. और, इसमें अगर कुछ था, तो बस इस सोच का दोहराव कि किसान अपनी मेहनत से खूब उपजा रहे हैं, सो अगर उन्हें ज्यादा सरकारी मदद दी जाये, तो वे और ज्यादा उपजायेंगे और उनकी दिन-दूनी रात-चौगुनी तरक्की होगी. जैसे प्रधानमंत्री ने 31 दिसंबर वाले अपने भाषण में किसानों की खुशहाली बताने के लिए उपज के आंकड़े गिनाये थे वैसे ही वित्त मंत्री ने भी कहा कि ‘खरीफ का उत्पादन और रबी सीजन में बुवाई का रकबा पिछले साल की तुलना में इस बार ज्यादा है’.
बेशक वित्त मंत्री की बात कृषि मंत्रालय को राज्यों से हासिल शुरुआती रिपोर्टों के तथ्यों के मेल में है. नये साल की 20 जनवरी तक प्राप्त रिपोर्टों के आधार पर कृषि मंत्रालय के हवाले से कहा जा सकता है कि साल 2015-16 में रबी सीजन में बुवाई का रकबा 59.2 मिलियन हेक्टेयर का था, जो 2016-17 में बढ़ कर 62.8 मिलियन हेक्टेयर हो गया. इस तरह एक साल में 6.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई. लेकिन, दो चीजों की तुलना तभी ठीक कहलायेगी, जब उनके गुण-धर्म समान हों. आम की तुलना आप चाहे कटहल से कर लें, लेकिन करेले से तो नहीं ही करेंगे.
रबी की बुवाई के रकबे और खरीफ के उत्पादन की बढ़त की बात बताते हुए वित्त मंत्री यह कहना भूल गये कि साल 2014-15 और 2015-16 सूखे के साल रहे, इसलिए इन दोनों सालों की बुवाई के रकबे से 2016-17 में हुई रबी सीजन की बुवाई के रकबे की तुलना नहीं की जा सकती.
सूखे के इन दोनों सालों में देश के ज्यादातर राज्यों में मॉनसून की बारिश सामान्य से बहुत कम रही. चूंकि 2016-17 का साल मॉनसून की बारिश के मामले में सामान्य रहा, सो इस साल की रबी की बुवाई के रकबे की तुलना 2013-14 के आंकड़ों से करना ठीक होगा, जो मॉनसूनी बारिश के लिहाज से एक सामान्य साल साबित हुआ था. साल 2013-14 में रबी की बुवाई का रकबा 64.4 मिलियन हेक्टेयर था, जो 2016-17 में घट कर 62.8 मिलियन हेक्टेयर हो गया है यानी तुलना करने पर रबी बुवाई का रकबा 2.5 प्रतिशत कम ठहरता है.दूसरे, यह सोच भी ठीक नहीं कि उपज का बढ़ना किसान-परिवारों की खुशहाली बढ़ने का पैमाना है.
दरअसल, सरकार की रीत ऐसी है कि उपज के बढ़ने और किसान की खुशहाली के बीच छत्तीस का रिश्ता बना चला आ रहा है. यह बात चाहे विचित्र लगे, लेकिन सच यही है कि उपज तो बढ़ती जा रही है, लेकिन किसान की कमाई नहीं बढ़ रही. वित्त मंत्री ने 10 लाख करोड़ के कर्ज की भारी पोटली तो बीच बाजार लाकर रख दी, लेकिन यह नहीं सोचा कि उस पोटली को खोलने की हिम्मत किसान दिखाये तो कैसे? कर्ज लेने की हिम्मत आती है उसे चुकाने की ताकत से और चुकाने की ताकत का सीधा रिश्ता है आमदनी की आशा से. सरकार के आंकड़े ही बताते हैं कि साल 2003 से 2013 के बीच किसानी से होनेवाली आमदनी में 3.6 गुना बढ़त हुई है और किसानी की लागत यानी खाद, बीज, सिंचाई, मजदूरी, बाजार तक माल-ढुलाई का खर्चा भी करीब तीन गुना बढ़ा है. हासिल जब लागत के बराबर हो, तो आमदनी क्या हुई?
बीते तीन सालों में फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर इजाफा महज 12 प्रतिशत का रहा है, जबकि छह साल पहले यह 50 प्रतिशत से ज्यादा था. एमएसपी बढ़े, तो किसान का कुछ हौसला बढ़ता है कि चलो सरकारी मंडी में ज्यादा कीमत पर उपज बेच लेंगे, लेकिन बड़ी फसलों (धान और गेहूं) में किसानी की लागत की बढ़ती की तुलना में एमएसपी का इजाफा कमतर होता जा रहा है. फसल की लागत से डेढ़ गुना ज्यादा एमएसपी देने के स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश से सरकार यह कह कर मुंह फेर चुकी है कि लागत मूल्य पर 50 प्रतिशत बढ़ोतरी से मंडी में दिक्कतें आ सकती हैं.
खाद-बीज-सिंचाई का खर्चा बढ़ा है, एमएसपी की बढ़त के वादे से सरकार मुकर रही है, बाजार में किसान एमएसपी से कम कीमत पर उपज बेचने को मजबूर है और तकरीबन 75 प्रतिशत किसान फसल-बीमा के दायरे से बाहर हैं! इसके बावजूद वित्त मंत्री अपने बजट-भाषण में कविताई करें कि ‘हम आगे-आगे चलते हैं आ जाइये आप’ तो आप ही कहिये कि किसान किस हिम्मत से उनके पीछे चले?
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