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गंगा सफाई का ढोंग

शोमैन कहलानेवाले राजकपूर की फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ वर्ष 1985 में आयी थी और इसके एक साल बाद अप्रैल, 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने गंगा एक्शन प्लान की शुरुआत की थी. मकसद था उद्योगों के कचरे और शहरों के नालियों से मैली हो चली गंगा के प्रदूषण को कम करना. शायद इस […]

शोमैन कहलानेवाले राजकपूर की फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ वर्ष 1985 में आयी थी और इसके एक साल बाद अप्रैल, 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने गंगा एक्शन प्लान की शुरुआत की थी. मकसद था उद्योगों के कचरे और शहरों के नालियों से मैली हो चली गंगा के प्रदूषण को कम करना. शायद इस एक्शन प्लान पर अमल नहीं होता, अगर पर्यावरण की रक्षा के संघर्षरत वकील एमसी मेहता ने गंगा की सफाई की अर्जी सर्वोच्च न्यायालय में नहीं दी होती. तीन दशक बाद आज दो बातें बेखटके कही जा सकती हैं.
एक तो यह कि ‘राम तेरी गंगा मैली’ एक सदाबहार फिल्म साबित हुई. दूसरे यह कि लोगों की पर्याप्त कोशिश, मांग और जरूरत तथा कोर्ट के बार-बार के निर्देश के बावजूद सरकार मैली गंगा को साफ करने में नाकाम रही है. गंगा एक्शन प्लान पर 15 सालों में लगभग 900 करोड़ रुपये खर्च हुए. वर्ष 2000 में यह योजना बंद हो गयी. गंगा सफाई की योजना मनमोहन सिंह के दौर में बनी, तो नरेंद्र मोदी के समय में भी. लेकिन, वैज्ञानिकों के शोध-आलेख और पर्यावरण-सेवियों के आकलन बताते हैं कि 11 राज्यों से गुजरनेवाली 2,525 किलोमीटर लंबी गंगा नदी अब दुनिया की सबसे ज्यादा प्रदूषित नदियों में शुमार है.
पर्यावरणीय मामलों की सुनवाई के लिए 2010 में बनी शीर्ष संस्था नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने जिम्मेवार एजेंसियों को फटकार लगायी है कि प्रधानमंत्री ने नमामि गंगे प्रोजेक्ट को 2,000 करोड़ रुपये का फंड दिया है, लेकिन गंगा का एक बूंद पानी साफ नहीं हो सका.
बात कभी केंद्र और राज्य सरकार के बीच तालमेल के अभाव के कारण बिगड़ जाती है, तो कभी गंगा के किनारे बसे शहरों में कायम उद्योगों के निहित स्वार्थ आड़े आ जाते हैं. इसी की एक मिसाल है कि नमामि गंगे प्रोजेक्ट के शुरू होने के एक साल के भीतर सरकार ने रणनीति बदली और गंगा के किनारे बसे 118 शहरों का ‘सीवेज-मैनेजमेंट’ तथा ट्रीटमेंट-प्लांट बनाने-चलाने का जिम्मा निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के कॉरपोरेट के हाथ सौंपने का फैसला किया.
दोष किसे दें- गंगा की सफाई की सरकारी पटकथा को या फिर उन्हें, जिन पर इस पटकथा को निभाने की जवाबदेही थी या फिर शहरों और उद्योगों के निरंतर विस्तार के सहारे चलनेवाली आधुनिक जीवन-शैली को या फिर राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी को? गंगा की त्रासदी देश के बड़े हिस्से के जन-जीवन से सीधे जुड़ी त्रासदी है. दोष साझे का है, दाग भी साझे का और समय रहते हम सब नहीं चेते, तो देश की जीवनधारा कहलानेवाली गंगा की मौत का जिम्मा भी साझे का होगा.

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