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भाषायी राज्यों का दफन

वरिष्ठ पत्रकार एमजे अकबर जिस तरह से थकी और नैतिक रूप से दिवालिया संसद ने इस नये राज्य के जन्म की घोषणा की, मानो हम एक राज्य का नहीं, बल्कि देश का विभाजन कर रहे हों. नवगठित राज्यों में अगर बंधुत्व की भावना क्षीण हुई, तो आबादी बिखरने लगेगी और कटुता बढ़ेगी. साथ ही, हिंसा […]

वरिष्ठ पत्रकार

एमजे अकबर

जिस तरह से थकी और नैतिक रूप से दिवालिया संसद ने इस नये राज्य के जन्म की घोषणा की, मानो हम एक राज्य का नहीं, बल्कि देश का विभाजन कर रहे हों. नवगठित राज्यों में अगर बंधुत्व की भावना क्षीण हुई, तो आबादी बिखरने लगेगी और कटुता बढ़ेगी. साथ ही, हिंसा का वातावरण बनेगा. हम हिंदुस्तान के शरीर पर एक और घाव नहीं चाहते हैं.

भारतीय संघ में 30वें राज्य की स्थापना होगी. 29वां राज्य, तेलंगाना, भारत के आंतरिक नक्शे के पुनर्गठन की आखिरी कड़ी नहीं है, जिसकी शुरुआत विडंबनात्मक रूप से गांधीवादी पोट्टी श्रीरामुलू के 1952 के आमरण अनशन से होती है, जिसकी मांग मद्रास प्रांत के तेलुगू-भाषी जिलों को निजाम द्वारा शासित हैदराबाद में मिलाकर आंध्र प्रदेश बनाने की थी. ‘प्रशासनिक सुविधा’ से इतर भाषा के आधार पर राज्यों के निर्माण की अवधारणा को सैय्यद फजल अली के नेतृत्व में 1955 में गठित राज्य पुनर्गठन आयोग ने औपचारिक स्वीकृति दी. क्षेत्रीय पहचान की भावना शासन की जरूरतों पर हावी हो गयी. ईश्वर न करे कि अगला राज्य उस जहर से भरा हो, जिसका शिकार तेलंगाना के जन्म के दौरान पूरा आंध्र बना हुआ है.

जिस तरह से थकी और नैतिक रूप से दिवालिया संसद ने इस जन्म की घोषणा की, मानो हम एक राज्य का नहीं, बल्कि देश का विभाजन कर रहे हों. यूपीए सरकार द्वारा किये गये वादों और भाजपा द्वारा उसकी मंजूरी की कोई कीमत नहीं है. पंजाब-विभाजन के समय चंडीगढ़ को पंजाब की राजधानी के रूप में दिये जाने का वादा था, लेकिन लगभग पांच दशकों के बाद भी शहर में हरियाणा का साझा है. पंजाब और हरियाणा कम-से-कम भौगोलिक तौर पर चंडीगढ़ से सटे हुए हैं, लेकिन तेलंगाना और सीमांध्र की संभावित साझा राजधानी हैदराबाद सीमांध्र से दूर है. अब कोई साहसी संन्यासी ही अनिष्टकारी परिणामों की भविष्यवाणी करे.

तेलंगाना के गठन ने भाषायी राज्यों के मॉडल को प्रभावी ढंग से खत्म कर दिया है. शासन और आर्थिक विषमता अब नये व एकमात्र तर्क होंगे. तेलंगाना और सीमांध्र की भाषा एक है. ऐसा पहले भी हुआ है. उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश की भाषा एक थी, बोलियों की भिन्नता को छोड़ दें, तो लिपि भी समान थी. लेकिन वह एक अपवाद था. झारखंड और छत्तीसगढ़ का निर्माण जातीयता के आधार पर हुआ था. भविष्य में विभाजनों का आधार विकास में कथित भेदभाव से उपजी आर्थिक विसंगतियां होंगी. जब हंगामा थम जायेगा, लड़ाइयां जीती और हारी जा चुकी होंगी, हमें सबसे बुनियादी सवाल का जवाब देना होगा-क्या छोटे राज्य अच्छे शासन की गारंटी हैं?

असंतुलन कोई एक कारण नहीं होता. तेलंगाना पुराने निजामत के भूगोल का प्रतीक है. इसके थोड़े शाही तबके 1948 में भारत में शामिल होते वक्त या 1956 में आंध्र प्रदेश बनने के वक्त अपने प्रतिस्पर्धियों से बहुत अधिक धनी थे. लेकिन इस धन के आधार पर उन्हें आधुनिक अर्थव्यवस्था में शामिल होने का अवसर मिला, तो इस तबके ने अहंकार से भरा आलसीपन दिखाया. इन्होंने खुद और राज्य की समृद्धि के लिए पुश्तैनी पूंजी के इस्तेमाल का मौका खो दिया. इस अक्षमता के लिए किसी और को दोषी नहीं ठहराया जा सकता.

लेकिन समस्या निजी पूंजी का पतन नहीं, बल्कि दिशाहीन सरकारी नीति है. न्याय के साथ आर्थिक विकास तय करना सरकार की प्राथमिक जिम्मेवारी है. इतिहास के प्रतीक्षालय में बिताने के लिए साढ़े छह दशकों का समय बहुत अधिक है. अब्राहम लिंकन द्वारा परिभाषित उत्कृष्ट लोकतांत्रिक आदर्श इस प्रकार था-जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए सरकार. जब तीसरा स्तंभ डगमगाता है, यह इमारत गिर जाती है.

तो क्या तेलंगाना का गठन नये राज्य में आर्थिक विकास को सुनिश्चित करेगा? इस बारे में साक्ष्य मिले-जुले हैं. हरियाणा और पंजाब ने विभाजन के बाद बेहतर प्रगति की है. हाल में, छत्तीसगढ़ व मध्य प्रदेश अलग होकर आगे बढ़े हैं. लेकिन, झारखंड ने गठन के समय से ही निकृष्ट, अस्थिर और भ्रष्ट शासन देखा है. झारखंड के नेताओं की खासियत बस बिकाऊ घोड़े होने की है और कीमत अच्छी हो, तो उन्हें इससे कोई परहेज नहीं है. अभी राज्य के एक काबीना मंत्री को बरखास्त कर दिया गया है, क्योंकि उन्होंने अपनी ही सरकार को सबसे भ्रष्ट सरकार कह दिया था. झारखंड खास संदर्भ है, क्योंकि अलग होने का इसका तर्क यह था कि राज्य की विशाल प्राकृतिक संपदा इसे समृद्ध बना देगी.

जब कोई तलाक होता है या कोई संयुक्त परिवार से अलग होता है, तो कटुता स्वाभाविक है. अगर इससे आर्थिक प्रतिद्वंद्विता होती है, तो कुछ अच्छे परिणाम हो सकते हैं. तेलंगाना और सीमांध्र को लेकर कुछ आशंकाएं हैं, लेकिन इसके गठन की प्रक्रिया के दौरान बना आवेश और घृणा का ऐसा माहौल देश ने पहले कभी नहीं देखा.

संभावित टकराहटों के कारण सिर्फ भावनात्मक नहीं हैं, और इसलिए अस्थायी हैं. खेती के लिए बुनियादी जरूरत पानी की हिस्सेदारी केदावे अकसर तर्क-आधारित नहीं होते. दूसरा, इसका तात्कालिक प्रभाव हैदराबाद पर और इसके आसपास हुए भारी निवेश पर पड़ेगा. अगर बंधुत्व की भावना क्षीण हुई, तो आबादी बिखरने लगेगी और कटुता बढ़ेगी. हिंसा का वातावरण बनेगा. हम हिंदुस्तान के शरीर पर एक और घाव नहीं चाहते हैं.

यूपीए सरकार ने अपने पांच साल के कार्यक्रम में तेलंगाना को आखिरी अध्याय बनाया, क्योंकि वह परिणामों की कोई जिम्मेवारी लिये बिना, इसका चुनावी फायदा उठाना चाहती है. बिना किसी खतरनाक नाटक के नये राज्य का गठन दो-तीन साल पहले भी हो सकता था. इसकी कीमत न सिर्फ राजनीतिक दलों को, बल्कि देश को भी चुकानी पड़ेगी.

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