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जो बिकेगा वही बचेगा

प्रभात रंजन कथाकार एक मूर्धन्य कवि की पंक्ति है- जो रचेगा वही बचेगा. लेकिन, हिंदी के साहित्यिक परिसर का जो हाल होता जा रहा है, उससे लगता है कवि की इस पंक्ति में संशोधन करके यह कहना पड़ेगा कि ‘जो बिकेगा वही बचेगा’. मुझे लगता है कि हिंदी की साहित्यिक पुस्तकों के लिए पहले यह […]

प्रभात रंजन
कथाकार
एक मूर्धन्य कवि की पंक्ति है- जो रचेगा वही बचेगा. लेकिन, हिंदी के साहित्यिक परिसर का जो हाल होता जा रहा है, उससे लगता है कवि की इस पंक्ति में संशोधन करके यह कहना पड़ेगा कि ‘जो बिकेगा वही बचेगा’. मुझे लगता है कि हिंदी की साहित्यिक पुस्तकों के लिए पहले यह रोना रोया जाता था कि बिकती ही नहीं, देशभर में 500 लोग साहित्य पढ़ते हैं. लेकिन, अब ऑनलाइन बिक्री, पुस्तक मेलों के कारण माहौल यह हो गया है कि घोर साहित्यिक समझे जानेवाले प्रकाशक भी किताबों को प्रकाशित करने से पहले उसका बाजार भाव मोलतोल लेते हैं.
साल 2016 खत्म हो रहा है. इस साल प्रकाशित किताबों की सूची पर नजर डालने पर एक आश्चर्यजनक बात की तरफ ध्यान गया. हिंदी के किसी बड़े प्रकाशक ने कविता संग्रह नहीं छापा. हां, उर्दू शायरी की किताबें धूमधाम से छपीं. ऐसा नहीं है कि पहले कविता संग्रह बिकते थे और अब न बिकते हों. जिसकी वजह से प्रकाशकों ने ऐसा निर्णय लिया हो.
वजह यह है कि धीरे-धीरे लोकप्रियता, बाजार की प्राथमिकता बढ़ती जा रही है. अंगरेजी के प्रकाशकों ने बिक्री न होने का हवाला देते हुए बहुत पहले से कविता पुस्तकों का प्रकाशन बंद कर रखा था. अब हिंदी में भी यह चलन शुरू हो गया है. अजीब बात है कि जिस दौर में सोशल मीडिया पर सबसे अधिक कविताएं लिखी जा रही हों, हिंदी में खूब आयोजन कविताओं के हो रहे हों, उसी दौर में हालात ऐसे बन गये हैं कि बड़े-बड़े प्रकाशक कविता संकलन छापने से गुरेज कर रहे हैं.
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि हिंदी किताबों की बिक्री अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है, इससे हिंदी साहित्य की धमक भी बढ़ी है. लेकिन, सारा पैमाना बिक्री ही हो जाये यह साहित्य के लिए उचित नहीं कहा जा सकता. मुझे मरहूम पत्रकार विनोद मेहता की बात याद आती है.
उन्होंने यह बात पत्रकारिता के संदर्भ में कही थी, लेकिन यह बता साहित्य के संदर्भ में भी लागू होती है- पत्रकारिता का उद्देश्य केवल जनरुचि के अनुसार सामग्री परोसना ही नहीं होना चाहिए, बल्कि जनरुचि का विस्तार भी होना चाहिए. यह सच्चाई है कि बहुत बिकनेवाली चीजें बहुत देर ठहरती नहीं हैं. जब साहित्य का पैमाना श्रेष्ठता नहीं, बल्कि बिक्री हो जाये, तो पाठक भी उपभोक्ता बन जाता है. उपभोक्ताओं का स्वभाव होता है कि उसकी नजर हमेशा नयी-नयी उपभोक्ता सामग्रियों पर रहती है. बड़ी से बड़ी बिकनेवाली किताबों को भी कुछ दिनों में लोग भूल जाते हैं.
बात सिर्फ कविता की ही नहीं है. हिंदी का यह संकट कितना बड़ा है, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि एक जमाने में हिंदी में आलोचना विधा की बहुत धमक थी. आलोचना पुस्तकों को बिक्री के पैमाने से कभी नहीं देखा जाता था. लेकिन, धीरे-धीरे बड़े प्रकाशकों के यहां इस विधा की उल्लेखनीय पुस्तकों का अभाव होता जा रहा है. सिर्फ आलोचना ही नहीं, समाज विज्ञान, शिक्षा आदि से जुड़े विषयों की किताबों का क्या होगा? इन विधाओं की किताबें अंगरेजी से अनुवाद के माध्यम से तो हिंदी में आती हैं, लेकिन मूल रूप से हिंदी में ऐसी किताबों को प्रकाशित करने के लिए प्रकाशकों की उदासीनता बढ़ती गयी है.
यह ट्रेंड पहले भी था. पहले कम था, लेकिन अब काफी बढ़ गया है कि किसी सेलिब्रिटी से कुछ लिखवा कर छाप दिया जाये. उसके नाम से प्रचार-प्रसार हो जाता है. मेलों में, लिटरेरी फेस्टिवलों में भीड़ जुट जाती है. कुछ हो न हो, तो किताब बिक तो जाती है. जब पैमाना बिक्री हो जाये, तो यही होता है. हर्रे लगे न फिटकरी, रंग आये चोखा!

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