‘आंख के बदले आंख’ या ‘जान के बदले जान’ लेना प्रतिशोधात्मक कार्रवाई भले हो, उसे सभ्य समाज के भीतर किसी भी तर्क से न्याय नहीं कहा जा सकता. न्याय तात्कालिक अर्थ में पीड़ित को राहत पहुंचाने का नाम है और दूरगामी अर्थ में किसी समुदाय विशेष के लिए करणीय-अकरणीय के मानदंड स्थापित करने का. साथ ही, वैश्विक होती दुनिया में न्याय की कोई ऐसी धारणा बनाना और अमल में लाना अनैतिहासिक ही कहा जायेगा, जिसे ज्यादातर लोकतांत्रिक देश नकार चुके हैं. इस सजा का प्रचलन अब ज्यादातर उन्हीं देशों में मौजूद है, जहां तानाशाही या अधिनायकवाद का चलन है.
इस लिहाज से पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के मामले में तीन लोगों की मौत की सजा को उम्रकैद में तब्दील करके सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय लोकतंत्र की न्याय-व्यवस्था की एक कमी को दूर करने की दिशा में महत्वपूर्ण पहलकदमी की है. राजीव गांधी की हत्या में 1998 में ही फांसी की सजा पाये संथन, मुरुगन और पेरीवालन के लिए भारतीय न्याय-व्यवस्था के भीतर आशा की किरण बीते माह चमकी थी, जब सुप्रीम कोर्ट ने 14 लोगों की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदला था. भारत में फांसी की सजा का विधान विरलतम और जघन्यतम अपराधों के लिए है. पर, मानवाधिकार समूह मानते हैं कि फांसी के ज्यादातर मामलों में फैसला सुनाते वक्त न्याय के आसन पर बैठे व्यक्ति के रुझान और नजरिये का जोर ज्यादा चलता है.
फांसी के फंदे पर लटकाये गये व्यक्ति का जीवन लौटाया नहीं जा सकता, इसलिए इस सजा को किसी ऐसी न्याय-व्यवस्था का हिस्सा नहीं बनाया जाना चाहिए, जिसमें भूल-चूक होने की रंच मात्र भी आशंका हो. ऐसा कोई शोध भी मौजूद नहीं है जिसके आधार पर कहा जा सके कि फांसी से समाज में अपराधों की संख्या रोकने में मदद मिलती है. तथ्य यह भी है कि दंड-प्रक्रिया के लंबा खिंचने के कारण फांसी की सजा पाये व्यक्ति और उसके परिजन को त्रसद स्थिति से गुजरना पड़ता है. राजीव गांधी की हत्या में भी फांसी की सजा 16 साल पहले सुनायी जा चुकी थी. इतने वर्षो तक अपने अथवा किसी परिजन के प्रति मृत्यु-भय से गुजरना अत्यंत अमानवीय है. इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि अब अपना देश फांसी की सजा को खत्म करने पर भी विचार करेगा.