आप कल्पना करें कि बड़े सोच-विचार और अनुभव से गुजरने के बाद आप किसी आस्था तक पहुंचें, उसकी नींव पर एक दुनिया बसायें और फिर ऐसा लगे कि वह आस्था तो एक छलावा थी, तब आप क्या करेंगे? क्या करेंगे आप उस दुनिया को बचाने के लिए, जिस दुनिया की नींव डोल रही हो और आपको कोई विकल्प न दिखायी दे? यूरोपीय संघ से निकलने के ब्रिटिश अवाम के फैसले (ब्रेक्जिट) और अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप को राष्ट्रपति बनाने के लिए मिले जनादेश के बाद दुनिया के सबसे सृजनशील दिमागों में यह सवाल गूंज रहा है. सैद्धांतिक भौतिकी के श्रेष्ठ वैज्ञानिकों में शुमार वैज्ञानिक स्टीफेन हॉकिंग की मानें, तो ब्रेक्जिट दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बनी दुनिया के बुनियादी मूल्यों से इनकार का प्रतीक है.
अगर अपनी भलाई के लिए कहीं आना-जाना, आर्थिक बेहतरी के अवसर तलाशना, शीत युद्धकालीन घेरेबंदी से निकल विश्वग्राम बनती दुनिया में वैश्विक स्तर की सोच, पहचान और संगठन कायम करना आदि नव-उदारवादी विश्व-व्यवस्था का लक्ष्य है, तो फिर ब्रेक्जिट इससे उलटी दिशा में जाने का फैसला है. मानवीय गरिमा और स्वतंत्रता को आदर्श मान कर दुनियाभर में लोकतंत्र फैलाने के मिशन पर निकले अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की जीत के भी निहितार्थ यही हैं. महिला, मुसलिम और आप्रवासियों के प्रति घृणा से भरे ट्रंप के जुमलों की जीत के बाद यह सवाल पूछा जायेगा कि क्या अमेरिकी अवाम के बड़े हिस्से ने मानवीय संस्कृतियों के मेल के अपने आदर्श से तौबा कर लिया? आज नव-उदारवादी पश्चिमी दुनिया काफी हद तक दूसरे विश्वयुद्ध के वक्त की तरह ही अनास्था का शिकार है.
सामाजिक सुरक्षा के ढहते ढांचे के बीच बढ़ते शरणार्थी और उनके दुखों की दुहाई देते हॉकिंग के लेख में यह अनास्था सवाल के शक्ल में गूंजती है कि जब तर्कसंगत स्वतंत्र अभिव्यक्ति की गुंजाइश न हो, तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के क्या मायने? जब जुड़ाव की भावना ही शेष न हो, तो संगठन बनाने की आजादी का क्या अर्थ, और जब अपने ही गढ़े मूल्यों से इनकार हो, तो किसी धर्म, मत या पंथ को मानने के हक का क्या मतलब? हॉकिंग इस आशावाद पर भरोसा करते हैं कि मानवता के हक में और ज्यादा विकास की जरूरत है. कौन जाने वे ठीक कह रहे हैं या फिर यह विकल्पहीनता की मंजूरी का ही एक स्वर है !