प्रभात रंजन
कथाकार
आजकल मेरी बेटी के स्कूल से शिकायत आती है कि वह हिंदी लिखने में बहुत अशुद्धियां करती है. यह मेरे लिए चिंता की बात है, क्योंकि मैं हिंदी पढ़ाता हूं. मेरे लिए और चिंता की बात तब हो जाती है कि मैं कॉलेज में जिन बच्चों को हिंदी पढ़ाता हूं, उनमें से ज्यादातर अशुद्ध हिंदी लिखते हैं. परीक्षा के बाद उत्तर पुस्तिकाओं को जांचते समय सबसे बड़ा द्वंद्व मन में यह बना रहता है कि अशुद्ध हिंदी लिखने के नंबर काटे जाने चाहिए या नहीं. कोई उत्तर पुस्तिका ऐसी मिल जाती है, जिसमें हिंदी शुद्ध लिखी गयी होती है, तो हम उसे उदाहरण के रूप में एक-दूसरे को दिखाते हैं. धीरे-धीरे शुद्ध हिंदी लिखना विरल होता जा रहा है.
यह कोई नयी बात नहीं है. दशकों पहले धर्मवीर भारती ने अपने एक ललित निबंध में यह बताया था कि कैसे देश के अलग-अलग हिस्सों में हिंदी के शब्द अलग-अलग तरीकों से लिखे जाते हैं. लेकिन, निबंध में उन्होंने भाषा के ऊपर क्षेत्रीय प्रभावों की चर्चा की थी. उनका उद्देश्य शायद यह दिखाना था कि किस तरह हिंदी अनेकता में एकता की भाषा है. भाषा रूपों की अनेकता आज भी बनी हुई है.
जब मैं सत्तर-अस्सी के दशक में स्कूल में पढ़ता था, तो हमारे अध्यापक शुद्ध हिंदी लिखने पर बहुत जोर देते थे. नियमित सुलेख लिखवाया जाता था. एक-एक अशुद्धि पर छड़ी से पिटाई होती थी.
स्कूल के पाठक सर ने मुझे यह सिखाया था कि हर दिन नियमित रूप से अखबार और पत्रिकाओं को ध्यान से पढ़ना चाहिए. उससे भाषा के शुद्ध रूपों का तो पता चलता ही है शब्द-भंडार भी समृद्ध होता है. यह उस जमाने की बात है, जब पत्र-पत्रिकाओं में अशुद्धियां न के बराबर होती थी. मुझे उन्होंने एक काम यह भी सौंपा था कि नियमित रूप से अखबार के पहले पन्ने से एक पैराग्राफ देख कर लिखने का. वे कहते थे भाषा-ज्ञान सहज रूप से व्यवहार करने से ही शुद्ध होता है. उनकी वजह से स्कूल के दिनों में मेरी भाषा बहुत शुद्ध हो गयी थी.बहरहाल, विद्वानों का शोध यह बताता है कि लोगों में अपनी मातृभाषा को अशुद्ध लिखने की सहज आदत होती है.
हम यह मान कर चलते हैं कि जिस भाषा को हमने बचपन से बोलना-लिखना सीखा, उसे हम जैसे लिखेंगे वही शुद्ध होगा. जबकि, हम जिस दूसरी भाषा को बाद में अपनाते हैं, उसको शुद्ध लिखने को लेकर हम अधिक सजग होते हैं. मसलन, हिंदी प्रदेशों के लोग असावधानीवश हिंदी को अशुद्ध लिखते हैं, लेकिन वही लोग जब अंगरेजी लिखते हैं, तो वे सजग होकर उसकी शुद्धता का ध्यान रखते हैं.
मेरी चिंता दूसरी है. आज स्कूलों में पाठक सर जैसे अध्यापक विरल होते जा रहे हैं. इसीलिए बच्चे हिंदी लिखने को लेकर उतने सजग नहीं रह जाते हैं. पब्लिक स्कूलों में बच्चों को हिंदी को ‘कैजुअली’ लिखना सिखाया जाता है, जबकि अंगरेजी को बहुत ध्यान से लिखना सिखाया जाता है. भाषा को यदि शुरू से ही आदत का हिस्सा न बनाया जाये, तो बड़े होने के बाद भी हमारा भाषा ज्ञान कुपोषित हो जाता है.दुख इसलिए होता है कि अशुद्ध हिंदी लिख कर भी बच्चे हिंदी में उच्च शिक्षा तक पा जाते हैं.
हिंदी पढ़ने-पढ़ाने के पेशों में भी आ जाते हैं. आज यह बात अधिक चिंताजनक इसलिए लगती हैं, क्योंकि पिछले बरसों में हिंदी भाषा रोजी-रोजगार की भी एक प्रमुख भाषा के रूप में उभरी है. आजादी के बाद जितना इस दौर में हिंदी का विस्तार हुआ है, उतना कभी नहीं हुआ था. लेकिन, आज सबसे अधिक अशुद्ध भाषा लिखी जा रही है. यह भी कड़वी सच्चाई है.