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लोहिया के उलट मुलायम
कभी जिस राज्य की राजनीतिक पहचान केंद्र की सत्ता तक पहुंचने की सीढ़ी के रूप में होती थी, आज वही उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से ठीक पहले सत्ताधारी पार्टी के मुखिया के पारिवारिक सदस्यों के बीच छिड़ी सबसे बड़ी कलह से झांकती साजिशों को देखने-सुनने के लिए अभिशप्त है. सपा की राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी मायावती ने […]
कभी जिस राज्य की राजनीतिक पहचान केंद्र की सत्ता तक पहुंचने की सीढ़ी के रूप में होती थी, आज वही उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से ठीक पहले सत्ताधारी पार्टी के मुखिया के पारिवारिक सदस्यों के बीच छिड़ी सबसे बड़ी कलह से झांकती साजिशों को देखने-सुनने के लिए अभिशप्त है.
सपा की राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी मायावती ने इस साल जनवरी में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था- ‘लोहिया होते तो मुलायम को बाहर कर देते.’ उस समय किसी ने नहीं सोचा था कि साल बीतते-बीतते यूपी का तथाकथित ‘समाजवादी परिवार’ और उसके सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव बड़े विडंबनात्मक तरीके से खुद ही मायावती की इस बात को सच साबित करने पर तुल जायेंगे. अंतर्कलह के बीच दो फाड़ होने के कगार पर पहुंची सपा फिलहाल चाचा-भतीजा, पिता-पुत्र, सौतेली मां, शकुनी और महाभारत जैसे शब्दों के सहारे राजनीतिक सच्चाइयों को समझने-सुलझाने में कुछ इस तरह घिरी दिख रही है, मानो 21वीं सदी में यूपी के समाजवाद के लिए यही सबसे संभावनाशील शब्दावली हो.
पार्टी में परिवार-जन और उनके चहेतों को रखने-निकालने, इस्तीफा लेने-देने और चिट्ठी लिख कर ऐतराज जताने जैसे दावं-पेच के बीच मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भरी सभा में रुंधे गले से कह रहे हैं कि ‘मैं पार्टी तोड़ने थोड़े ही आया हूं, आप सबका ही कहा करूंगा.’ पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव कह रहे हैं- ‘नेताजी (मुलायम सिंह) को निश्चित ही आसुरी शक्तियों ने घेर लिया है. मैं इस धर्मयुद्ध में अखिलेश के साथ हूं.’ तो पार्टी की कलह और उम्र से थकी देह व आवाज के बीच खुद मुलायम सिंह मुख्यमंत्री को उसकी हैसियत याद दिलाते हुए चेतावनी दे रहे हैं कि ‘शिवपाल यादव तुम्हारे चाचा हैं, उनके गले लगो. तुम्हारी हैसियत ही क्या है, एक लाठी का वार तुमसे ना झेला जायेगा. अमर सिंह मेरे भाई हैं, उनके खिलाफ नहीं सुन सकता’.
मुलायम की परिवारवाद की राजनीति को लक्ष्य करके मायावती द्वारा जनवरी में कहा गया वाक्य अक्तूबर के आखिरी हफ्ते में सच होता दिख रहा है.
सपा अपने कर्म और विचार से लोहिया को बर्खास्त कर रही है और इसी क्रम में खुद की बर्खास्तगी के परवाने पर भी दस्तखत करती दिख रही है. अपनी प्रतिभा और कर्मयोग से समाजवाद को भारतीय सच्चाइयों के अनुकूल खड़ा करनेवाले राममनोहर लोहिया के साथ मुलायम सिंह और उनकी पार्टी ने कुछ अनोखा नहीं किया है. विचारधाराओं के साथ अक्सर यही होता आया है.
वक्त बीतने के साथ उनमें से विचार ‘गायब’ हो जाते हैं, बस ‘धारा’ रह जाती है. महापुरुषों के साथ भी कुछ ऐसा ही होता है. उनकी मूर्तियां बना दी जाती हैं और मूर्तियों के महामौन के बीच महापुरुषों के वचन बिसार दिये जाते हैं. विचारधाराओं और महापुरुषों के साथ जुड़ी यही विडंबना तथाकथित समाजवादी परिवार की कलह में दिख रही है. सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह ने अपनी पार्टी के वजूद के ढाई दशक में भारतीय तर्ज के समाजवाद को जमीन पर खड़ा करनेवाले कर्मयोगी राममनोहर लोहिया को जन्मतिथि, पुण्यतिथि, मूर्ति, माल्यार्पण और नाम-जप का विषय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. हां, लोहिया के विचार और उन विचारों के साथ बंधा मिशन राजनीतिक सफलता के हर कदम के साथ मुलायम सिंह से पीछे छूटता गया.
लोहिया ने आजाद भारत में कांग्रेस के वर्चस्व के विरुद्ध विपक्ष को खड़ा करने में अपनी उम्र लगायी, लेकिन रस्मी तौर पर लोहिया का नाम लेने से कभी न चूकनेवाले मुलायम सिंह ने अपनी उम्र का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा यूपी में अपने परिवार के राजनीतिक वर्चस्व को स्थापित करने में लगाया. लोहिया देश को जातिप्रथा की जकड़न से मुक्त करके उसके भीतर एक अधिकार-चेतस व्यक्ति-मानव की रचना करना चाहते थे, लेकिन मुलायम सिंह ने पार्टी के भीतर अपने परिवार को, परिवार के भीतर स्वयं को और प्रदेश के भीतर एक जाति के दबदबे को स्थापित करने की राजनीति की है. लोहिया ने ‘कंचन-मुक्ति’ (अपरिग्रह) का जीवन जीया. सांसद बनने से पहले तक उनके पास कोई बैंक खाता न था और सांसद बनने के बाद भी उनके दस्तखत किये चेकबुक संसदीय दल के नेता मनीराम वागदी के पास रहते थे.
लोहिया के इस अपरिग्रह के उलट यूपी का ‘समाजवादी परिवार’ पैसा पानी की तरह बहानेवाले सैफई-महोत्सव के कारण जाना जाता है और उस पर काला धन बटोरने के मामले में सीबीआइ से बचने के आरोप लगते रहते हैं. शिवपाल, अखिलेश और रामगोपाल के बगावती तेवरों के बीच भी यही सब सामने आ रहा है. लोहिया हर मायने में स्त्री-पुरुष की समानता के पक्षधर थे, जबकि मुलायम सिंह अपने सार्वजनिक उद्गार में बलात्कार जैसे संगीन मामले में भी घनघोर सामंती सोच के इजहार से नहीं चूकते.
कोई कह सकता है कि गांधी, लोहिया, सुभाष, आंबेडकर या भगत सिंह जैसे किसी एक महान व्यक्ति के विचार और मिशन से बंधे रहना कोई विशेष प्रशंसा की बात नहीं है. इससे आपकी प्रतिबद्धता जाहिर होती है, आपका नवाचार जाहिर नहीं होता, जबकि किसी विचार और मिशन को नये हालात और वक्त के साथ प्रासंगिक बनाये रखने के लिए उसमें नवोन्मेष करने होते हैं.
लोहिया के विचार या मिशन को प्रासंगिक बनाये रखने के लिए उसमें नवाचार करना मुलायम से संभव न हो सका. हां, लोहिया के सप्तक्रांति के सूत्र को उन्होंने एक प्रहसन में बदलने में जरूर बड़ी सफलता पायी है. अगर नवाचार की कोई संभावना अखिलेश यादव के भीतर थी, तो अब निश्चित ही उसकी भी भ्रूणहत्या हो गयी है.
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