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मानस और युद्ध का स्वभाव
आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया पाकिस्तान पर भारत द्वारा किये गये हमले के दीर्घकालिक निहितार्थ क्या हो सकते हैं? इनमें से एक यह हो सकता है कि हमारे बीच एक और युद्ध हो, जो अगर यह लंबा चलता है, तो आधिकारिक तौर पर तीसरा युद्ध होगा, या अगर यह कम समय में खत्म […]
आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
पाकिस्तान पर भारत द्वारा किये गये हमले के दीर्घकालिक निहितार्थ क्या हो सकते हैं? इनमें से एक यह हो सकता है कि हमारे बीच एक और युद्ध हो, जो अगर यह लंबा चलता है, तो आधिकारिक तौर पर तीसरा युद्ध होगा, या अगर यह कम समय में खत्म हो जाता है, तो फिर पांचवां युद्ध होगा. हमने पाकिस्तान के साथ पहली लड़ाई 1947-48 में तब लड़ी थी, जब जिन्ना ने कश्मीर को अपने अधीन करने के लिए पठानों की कबायली सेना भेजी थी और उस इलाके पर कब्जा कर लिया था, जिसे आज हम पाक-अधिकृत कश्मीर और पाकिस्तान आजाद कश्मीर कहता है.
उसके बाद 1965 में पाकिस्तानी विदेश मंत्री जुल्फीकार अली भुट्टो के उकसावे में आकर अयूब खान ने एक बार फिर कश्मीर में घुसपैठियों को भेेजा था. इसके प्रतिक्रियास्वरूप लालबहादुर शास्त्री ने अंतरराष्ट्रीय सीमा के पार लाहौर की ओर अपने टैंक भेज दिये थे. ताशकंद (अब उज्बेकिस्तान में) में सोवियत संघ की मध्यस्थता में हुए शांति समझौते के साथ इस युद्ध का अंत हुआ था. इस युद्ध के खत्म होने का एक कारण यह भी था कि दोनों देशों की वायुसेनाओं के पास अतिरिक्त उपकरण नहीं बचे थे.
लड़ाकू विमान बेहद शक्तिशाली मशीन होते हैं, जिनके उपकरण बहुत महंगे होते हैं और उनकी खपत बड़ी तेजी से होती है. यही कारण है कि गरीब देश आधुनिक युद्ध को 10 दिनों से ज्यादा समय तक नहीं लड़ सकते हैं. आज पाकिस्तान के मुकाबले भारत कहीं ज्यादा शक्तिशाली व धनी है, इसीलिए अब परिस्थिति बदल चुकी है. लेकिन इसके साथ ही एक सच यह भी है कि आज हम दोनों के पास व्यापक पैमाने पर तबाही मचानेवाले हथियार हैं, जो शास्त्री के समय में नहीं थे.
ताशकंद शांति समझौते के केवल छह वर्ष बाद ही 1971 के युद्ध में बांग्लादेश के निर्माण के लिए हमने पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिये थे. वर्ष 1999 में हमने पाकिस्तान के नॉर्दर्न लाइट इनफैंट्री के जवानों से कारगिल को खाली कराया था. हालांकि, इसमें दोनों ओर के पांच-पांच सौ यानी कुल 1000 सैनिक मारे गये थे. कारगिल के टकराव को युद्ध की श्रेणी में नहीं रखा जाता है, क्योंकि दोनों में से किसी भी देश ने आधिकारिक तौर पर युद्ध की घोषणा नहीं की थी.
इस बार जब प्रधानमंत्री नरेंद मोदी ने बदले की कार्रवाई की अनुमति दे दी है, तो युद्ध की स्थिति नियंत्रण में दिख रही है. सर्जिकल स्ट्राइक की घोषणा करते हुए भारत ने बेहद सावधानी के साथ अपनी बात रखी. हमने पाकिस्तान और दुनिया को यह भी आश्वासन दिया कि आगे किसी तरह की कार्रवाई करने की हमारी योजना नहीं है. हालांकि, हम पाकिस्तान के साथ पहले ही इतने युद्ध कर चुके हैं कि हमेशा ही उसके साथ फिर से युद्ध होने की संभावना बनी रहती है.
युद्ध के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि इससे आबादी बहुत जल्दी ऊब जाती है. मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि युद्ध के परिणामस्वरूप जवानों के मरने या अर्थव्यवस्था चौपट होने लगती है, इसीलिए वे युद्ध से थक जाते हैं. बल्कि, मेरे कहने का यहां अर्थ यह है कि युद्ध को लेकर उनके मन में एक ऊब पैदा हो जाती है.
पहला विश्वयुद्ध खाइयों में लड़ा गया था. एक लंबी और सीधी रेखा, जो बेल्जियम (एक ऐसा अभागा देश, जिसकी इच्छा युद्ध में शामिल होने की नहीं थी, लेकिन दो युद्धरत देशों के बीच स्थित होने की वजह से वह युद्धस्थल बन गया) से शुरू होकर स्विट्जरलैंड में खत्म होती थी. यह लंबी और अचल रेखा वर्षों तक यूं ही बनी रही. वर्ष 1914 और 1918 के बीच, जब जर्मनी फ्रांस और ब्रिटेन से लड़ रहा था, वे महज 150 मीटर की दूरी पर एक-दूसरे के प्रति बेहद घृणा करते थे.
लेकिन, युद्ध के पीछे उन देशों में क्या चल रहा था? कुछ भी नहीं. लोग शाम में पब और रेस्तरां में जा रहे थे, कार्यालयों, फैक्ट्रियों और खेतों में सुबह काम कर रहे थे. बच्चे स्कूल जा रहे थे और परिवार सालाना छुट्टियों पर जा रहे थे. उधर इस पूरे समय यानी युद्ध के चार वर्षों की अवधि में फ्रांस और बेल्जियम के हजारों शहरों, नगरों और गांवों से कुछ किलोमीटर की दूरी पर ही लाखों लोग एक-दूसरे पर गोली चला रहे थे और बम फेंक रहे थे.
उस युद्ध में कितने लोग मारे गये थे? डेढ़ करोड़ से भी ज्यादा. उस युद्ध का नतीजा क्या निकला? यह कहना मुश्किल है. राष्ट्रीय सीमाएं कमो-बेश वैसी ही रहीं, लेकिन इसमें शामिल सभी देशों की अर्थव्यवस्थाएं चौपट हो गयीं. कुछ देशों में शासन बदल गया. रूसी साम्राज्य का पतन हो गया और साम्यवादियों ने सत्ता को अपने हाथ में ले लिया. ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य के साथ जर्मन साम्राज्य का भी अंत हो गया. लेकिन, ये सभी बदलाव अंदरूनी तौर पर हुए थे. किसी भी देश को युद्ध की मार-काट से फायदा नहीं हुआ.
मैं सोचता हूं कि क्या पाकिस्तान के साथ हमारी लड़ाई अलग तरह की होगी? हमारी ओर से की गयी सर्जिकल स्ट्राइक क्या पाकिस्तानी आतंकवाद का अंत कर देगी? और अगर ऐसा नहीं हुआ, तो अगले आतंकी हमले के बाद हम क्या करेंगे? तब क्या हम दूसरा सर्जिकल स्ट्राइक करेंगे या इससे भी कुछ बड़ा करेंगे? आखिर पाकिस्तान को पूरी तरह रोकने के लिए हमें कितनी बड़ी कार्रवाई करनी होगी? हमने पाकिस्तान काे दो टुकड़ों में बांट दिया, लेकिन उसके बाद भी उसने सबक नहीं सीखा, जो हम उसे सिखाना चाहते हैं. अगर एक बार फिर हम उसके टुकड़े कर देते हैं, तो क्या वह इस बार सबक सीख जायेगा? हालांकि, इसके लिए बड़े पैमाने पर हत्याएं करनी पड़ेंगी और बड़ी संख्या में लोग मारे जायेंगे.
मैं सोचता हूं कि क्या तब भी लोग ऊब जायेंगे? क्या हम कुछ दिनों के बाद अपना जीवन फिर पहले की तरह जीने लगेंगे, जब समाचारों में कुछ भी नया नहीं होगा और हाल की हत्याएं ठीक उसी तरह की होंगी, जैसे पहले की हत्याएं थीं? क्या हम अपने काम पर जायेंगे, और वापस आकर उसी टेलीविजन चैनल पर इंद्राणी मामले के ताजा हाल पर बहस देखेंगे? मैं ऐसा इसलिए सोचता हूं, क्योंकि यही मानव का स्वभाव है और यही युद्ध का स्वभाव भी है.
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