अगर विवाद के निपटारे के लिए किसी को पंच चुना गया है, तो उसके फैसले का सम्मान करना भी जरूरी है. सर्वोच्च न्यायालय ने कर्नाटक के प्रति पूरी सहानुभूति के साथ रोजाना 15 हजार क्यूसेक पानी छोड़ने के पूर्ववर्ती फैसले पर पुनर्विचार करते हुए इसे घटा कर रोजाना छह हजार क्यूसेक (27 सितंबर तक) कर दिया.
लेकिन, कर्नाटक विधानसभा ने प्रस्ताव पारित कर राज्य सरकार को अधिकार दिया कि वह तमिलनाडु को पानी देने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला न माने. इससे एक गलत परंपरा शुरू होने का खतरा है.
विधायिका और न्यायपालिका के बीच ऐसे किसी भी टकराव से लोकतांत्रिक व्यवस्था को धक्का पहुंचेगा. कर्नाटक ने पहले दलील दी कि राज्य में कानून-व्यवस्था के सामान्य होने तक तमिलनाडु के लिए पानी नहीं छोड़ा जा सकता. अदालत ने इसे खारिज कर दिया. अब पेयजल और सिंचाई के लिए पानी कम पड़ने का पुराना तर्क दोहराते हुए कर्नाटक ने अर्जी दी है कि 42 हजार क्यूसेक पानी अभी नहीं, बल्कि दिसंबर में दे सकते हैं.
कर्नाटक का यह तर्क सही हो सकता है कि तमिलनाडु अपना एक फसलचक्र पूरी कर दूसरी फसल के लिए पानी मांग रहा है, जबकि हमारे किसानों की खड़ी फसल के लिए पानी की जरूरत है, लेकिन इस तर्क से तमिलनाडु का दावा कमजोर नहीं हो जाता. दूसरे फसल-चक्र के लिए अगर पानी अभी जरूरी है, तो उसे किसी और समय के लिए नहीं टाला जा सकता है. वर्ष 1990 में न्यायाधीश चित्तोष मुखर्जी की अध्यक्षता वाले ट्रिब्यूनल ने तमिलनाडु को 205 टीएमसी पानी देने का अंतरिम आदेश पारित किया था, तब कर्नाटक ने राज्यपाल के आदेश के जरिये नदी जल को राज्य का मामला बता कर ट्रिब्यूनल की बात मानने से मना कर दिया था.
कावेरी नदी जल के बंटवारे पर हुए 1924 के समझौते की अनदेखी करते हुए 1928 से लेकर 1971 के बीच तमिलनाडु ने 11 लाख 56 एकड़ अतिरिक्त भूमि में सिंचाई की और कर्नाटक ने अपनी 3 लाख 68 हजार एकड़ अतिरिक्त भूमि को सिंचाई सुविधाएं दी. पानी की कमखर्ची की परवाह दोनों ही राज्यों को नहीं रही है. परंतु यह वक्त अतीत की आड़ में मौजूदा हालात से नजर चुराने का नहीं है. अच्छा होगा कि अदालत की मध्यस्थता में दोनों राज्य मिल-जुल कर जल्दी कोई हल निकालें.