गिरींद्र नाथ झा
ब्लॉगर एवं किसान
जिस नारे से मुझे सबसे ज्यादा चिढ़ है, वह है- ‘जय जवान, जय किसान’. दरअसल जवान और किसान को मुल्क में बड़ी मासूमियत से पेश किया जाता रहा है. मानो ये दोनों नाम अपने भाग्य का रोना रोते हों और कोई बड़ी शक्ति आकर इन्हें भरोसा देती हो- ‘सब ठीक हो जायेगा, आप यूं ही खेत और सीमा पर लड़ते रहिये’. किसान और जवान आराम से ठग लिये जाते हैं.
वे बहस ही नहीं करना चाहते हैं कि जब वे मुश्किल में रहते हैं तो फिर उनकी जय-जय क्यों? पिछले तीन साल से खेत में समय व्यतीत करते हुए अनुभव कर रहा हूं कि आप लोग किसान को केवल सब्सिडी और मुआवजे के लिए रोते देखना पसंद करते हैं. दरअसल, यह नजरिया आज नहीं बना है, बल्कि वर्षों पहले इसकी बुनियाद रखी गयी थी.
आप किसानों को भूमि अधिग्रहण के नाम सड़क जाम करते हुए देखते आये हैं. किसान को सूखा, बाढ़, आंधी, बारिश की चपेट में सब कुछ लुटाते हुए देखते आये हैं. लेकिन, आपने कभी उससे यह नहीं पूछा कि जब वे अपनी जमीन किसी बिल्डर या कंपनी को बेच देते हैं, तब मिलनेवाले पैसे से बचे खेत में उन्नत तरीके से खेती क्यों नहीं करते हैं? बच्चों की शिक्षा में निवेश क्यों नहीं करते हैं? केवल एसयूवी में निवेश क्यों? खेती की जमीन बेच कर वे फ्लैट क्यों खरीद रहे हैं?
जब किसान खुश दिखता है, मौसम की मार सहने के बाद भी अपनी रोजी-रोटी चला रहा होता है, तो इस पर आपके चेहरे का भाव ऐसा क्यों बन जाता है मानो किसी दूसरे ग्रह का प्राणी खेत में आ गया हो! किसान खुश हैं, यह बात जब कई लोग सुनते हैं, तो परेशान हो जाते हैं.
हमें किसानों को लेकर अपना नजरिया बदलना होगा. कृषि समाज को सब्सिडी-मुआवजे के राग से छुटकारा दिलाना होगा. हम कब तक अपने पेशे को कोसते रहेंगे? कब तक अपने बच्चों को खेती से दूर रहने की सलाह देते रहेंगे?
गुजरे इन तीन साल में मेरी मुलाकात गिनती के ऐसे किसानों से हुई है, जो यह न कहता हो कि ‘मैं ऋण में हूं’. हम बिना मेहनत किये कर्ज लेकर खेती करते हैं और फिर बैंक को लौटाते वक्त फसल बरबाद होने का रोना रोते हैं. ऐसे में जय किसान का नारा पॉलिटिकल हो जाता है और चुनावी गणित के गुणा-भाग में किसान सबसे मासूम निशाना बन जाता है.
पंचायत चुनाव से लेकर विधानसभा-लोकसभा चुनाव तक आपने कभी सुना है कि किसानों के लिए यह कहा गया हो कि आप शानदार फसल उपजायें, सरकार हाथों-हाथ खरीद लेगी? आपने सुना होगा- बोरिंग के लिए अनुदान मिलेगा, डीजल अनुदान, किसान क्रेडिट कार्ड, मनरेगा के तहत मिट्टी ढोते रहिये, रोजगार मिलता रहेगा आदि. ऐसे वादे सुन कर हम किसानी कर रहे लोग और भी आलसी होते जा रहे हैं.
बीड़ी-तंबाकू के लिए तो हमारे पास पैसा है, लेकिन पांच-दस रुपये के कदंब के पौधे के लिए हम सरकार पर निर्भर हैं! हम इतना ऋणी क्यों होना चाहते हैं? इसीलिए मुझे जय किसान के नारे से चिढ़ है. मुझे तो मनरेगा से भी चिढ़ है. खेत के बदले हम सड़क पर मिट्टी बिछाने लगे हैं. जिसके पास किसानी की समझ है, वह भी मजदूर बनता जा रहा है.
ऋण में डूबने के बजाय किसानों को आत्मनिर्भर बनने दीजिए. हमें मेहनत करने दीजिए. किसानी में नये शोध कार्यों से परिचित करवाइए. यदि हम नया करें, तो हमारी तारीफ करिये, गलती करें, तो आलोचना करिए. लेकिन, ऋण में डूबने की सलाह मत दीजिए. नहीं तो वह भी वक्त आयेगा, जब आप गांव में सरकारी खर्च से शौचालय तो बनवा देंगे, लेकिन उसके उपयोग के लिए आपको हमें अनुदान देना होगा.