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गंभीर के विरुद्ध नहीं लोकप्रिय

प्रभात रंजन कथाकार हिंदी में लोकप्रिय बनाम गंभीर की बहस सबसे पुरानी है. अलग-अलग प्रसंगों में, अलग-अलग संदर्भों में वह बार-बार नयी हो जाती है. हिंदी सिनेमा का जो पुराना प्रारूप है, उसमें कोई भी कहानी बिना खलनायक के पूरी नहीं होती. उसी तरह हिंदी में कुछ लेखकों को, कुछ खास टाइप के लेखन को […]

प्रभात रंजन

कथाकार

हिंदी में लोकप्रिय बनाम गंभीर की बहस सबसे पुरानी है. अलग-अलग प्रसंगों में, अलग-अलग संदर्भों में वह बार-बार नयी हो जाती है. हिंदी सिनेमा का जो पुराना प्रारूप है, उसमें कोई भी कहानी बिना खलनायक के पूरी नहीं होती. उसी तरह हिंदी में कुछ लेखकों को, कुछ खास टाइप के लेखन को ‘नायक’ साबित करने के लिए लोकप्रिय ‘खलनायकों’ की खोज की जाती है. यह बड़ी दिलचस्प बात है कि हिंदी सिनेमा में नायक-खलनायक वाला यह फॉर्मूला पुराना पड़ चुका है, लेकिन हिंदी लेखन के परिसर में आज तक नायक जरूर बदल रहे हैं, लेकिन खलनायक नहीं बदले.

यह गंभीर बहस हिंदी में कभी गंभीरता से नहीं हुई. हिंदी में खड़ी बोली के पहले बड़े कवि मैथिलीशरण गुप्त की काव्य-पंक्तियां हैं- ‘केवल मनोरंजन न कवि कर्म होना चाहिए/ उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए.’ हिंदी के इस पहले राष्ट्रकवि की इन पंक्तियों से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे मनोरंजनपूर्ण लेखन के विरुद्ध नहीं थे, बल्कि उनका यह मत था कि मनोरंजनपूर्ण शैली में अगर सामाजिक उद्देश्यों का प्रचार किया जाये, तो बात समाज के अधिक लोगों तक पहुंचेगी.

संकीर्णता धीरे-धीरे आयी है. यह ऐतिहासिक तथ्य है कि जैसे-जैसे हिंदी में पाठकों का टोटा पड़ता गया है, वैसे-वैसे गंभीर बनाम लोकप्रिय की बहस हिंसक होती गयी है. एक जमाना था, जब पत्रिकाओं में चमत्कारी अंगूठी के विज्ञापन के नीचे निराला की कविता प्रकाशित हो सकती थी और किसी को कोई आपत्ति भी नहीं होती थी. हिंदी का पाठक अच्छी तरह यह समझता था कि क्या अच्छा है और क्या बुरा?

क्या एक पाठक किसी उपन्यास या किताब को पढ़ने का फैसला इसलिए लेता है, क्योंकि उसको अपने जीवन के लिए संदेश लेना होता है? यह सिर्फ एक रुमान है. पाठक कंज्यूमर (उपभोक्ता) होता है, क्योंकि वह पढ़ने के लिए किताब खरीदता है और उसकी यह बिल्कुल उम्मीद नहीं होती है कि वह जिस किताब को पढ़े, उससे उसको धर्म ग्रंथों जैसा जीवन संदेश मिले.

अगर बात जीवन संदेश की ही है, तो क्या इससे इनकार किया जा सकता है कि सभी अपराध कथाएं अंततः बुराई पर अच्छाई की जीत का संदेश देती हैं? अगर सुरेंद्र मोहन पाठक के उपन्यासों का उदाहरण लें, तो उनके किरदार आम आदमी ही होते हैं, जो असाधारण पर जीत हासिल करते हैं. इसीलिए हिंदी पट्टी के गांव-देहातों तक उनके उपन्यास पहुंचे, क्योंकि वे उनके भीतर उम्मीद जगाते थे.

अजीब विरोधाभास है कि हिंदी में सबसे अधिक लोक की, जन की बाद की जाती है. लेकिन लोक की बात करनेवाले लोग लोकरुचि से भयानक नफरत करते हैं. लोकरुचि की हिमायत करने का यह मतलब नहीं है हिंदी की साहित्यिक परंपरा को खारिज कर दिया जाये.

बस उसका मतलब यह भर है कि हिंदी में लोकप्रिय लेखन की धारा उतनी ही पुरानी है, जितनी गंभीर लेखन की. हिंदी में पढ़ने की आदत पैदा करने, हिंदी को लोकप्रिय बनाने में उसकी भी बड़ी भूमिका रही है. लेकिन उसके प्रति हिंदी की मुख्यधारा में, अकादमिक जगत में हिकारत का भाव रहा है. लोकप्रिय के हिमायती बस यही कहते हैं कि बजाय लोकप्रिय को खारिज करने के उनका सही मूल्यांकन किया जाये.

ऐसे दौर में, जबकि हिंदी में लोकप्रिय लेखन की पाठक संख्या भी गिर रही है, लोकप्रिय साहित्य के गंभीर अध्ययन से इस बात को समझा जा सकता है कि इतने दशकों तक हिंदी के पाठकों को वह क्या तत्व था, जिसने बांधे रखा. लोकप्रिय लेखन हिंदी में गंभीर लेखन के विरुद्ध नहीं है, बल्कि वह उसके साथ जन्मा उसका हमजाद है. उसको अपनाये बिना हिंदी का कोई भी परिसर पूर्ण नहीं हो सकता!

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