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यह मेरा चेहरा कैसे हो सकता है?

।। शैलेश कुमार ।। प्रभात खबर, पटना मैं भारत हूं. हिंदुस्तान भी. और 2014 का इंडिया भी. मुझे विश्वगुरु कहा गया. सोने की चिड़िया कहा गया. और, विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भी. मैं गर्व से फूला नहीं समा रहा था, जब 26 जनवरी, 1950 को मुझे लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया जा रहा था. बार-बार […]

।। शैलेश कुमार ।।

प्रभात खबर, पटना

मैं भारत हूं. हिंदुस्तान भी. और 2014 का इंडिया भी. मुझे विश्वगुरु कहा गया. सोने की चिड़िया कहा गया. और, विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भी. मैं गर्व से फूला नहीं समा रहा था, जब 26 जनवरी, 1950 को मुझे लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया जा रहा था. बार-बार खुद को शीशे में निहार रहा था.

चेहरे पर अंगरेजों द्वारा दिये जख्मों को देख रहा था. कल्पना कर रहा था कि मेरे जिन सपूतों ने मुझे परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त कराया है, वे आनेवाले वर्षो में मुझे कितना सुंदर बना देंगे. तभी एक पत्थर का टुकड़ा शीशे से टकराया और वह चकनाचूर हो गया. पता चला कि सड़क पर पत्थरबाजी हो रही है. उन्हीं में से एक पत्थर खिड़की से अंदर आया और शीशे से टकरा गया.

इसके साथ ही मैं भी यादों से वर्तमान में लौट आया. टूटे शीशे के टुकड़ों में मैं अब खुद को देख रहा हूं. देख रहा हूं कि मेरा कौन सा चेहरा ज्यादा सुंदर था-आजादी से पहले का या अब का. खुद को देख मैं बहुत डर गया हूं. मैं पूरे यकीन के साथ कह सकता हूं कि यह मैं नहीं हूं. मैंने कभी किसी का अहित नहीं चाहा. मैंने कभी हिंसा करना नहीं सिखाया. जोड़-तोड़ कर सरकार बनाना नहीं सिखाया और न ही भोली-भाली जनता को मूर्ख बना कर उसे लूटना सिखाया.

आप सुन रहे हैं न, यह मैं नहीं हूं. मैंने कभी भ्रष्टाचार का नाम नहीं सुना था. मेरी पाठशाला में ईमानदारी और सेवा का पाठ पढ़ाया जाता था. मैंने हमेशा अपनी जनता को अपनी संतानों की तरह माना. उसकी भलाई ही मेरे लिए सब कुछ थी. घूसखोरी और धोखाधड़ी जैसे शब्द मेरे बनाये शब्दकोश में नहीं थे.

फिर यह मेरी तसवीर कैसे हो सकती है? ये नक्सलवाद क्या है? संप्रदायवाद क्या है? आंतकवाद क्या है? सच में मुझे नहीं मालूम. मैं तो बस समाजवाद को जानता हूं. इसका जिक्र मेरे संविधान की प्रस्तावना में भी है. जरूर इस शीशे में कोई खराबी है. यह मेरा सही चेहरा नहीं दिखा रहा है.

मैं तो वह भारत हूं, जहां नारी की पूजा की जाती है. जहां सभी धर्मो के लोग मिल-जुल कर रहते हैं. मेरे संतानों की भाषा अलग है, पहनावे अलग हैं और रंग भी अलग हैं, लेकिन फिर भी उनमें एकता है. लेकिन इस शीशे में जो चेहरा मुझे नजर आ रहा है, यह तो किसी और का है.

यहां किसी देश के लोग जो देखने में भारतीय ही लगते हैं, कभी नक्सलवाद, कभी संप्रदायवाद और कभी आतंकवाद के नाम पर एक-दूसरे का खून बहा रहे हैं. इस देश में बच्चे कुपोषण से मर रहे हैं. संतों से ले कर नेताओं पर भी गंभीर आरोप लग रहे हैं. प्रदूषण ने लोगों का जीना दूभर कर दिया है.

जनकल्याण की भावना जनप्रतिनिधियों के अंदर से समाप्त हो गयी है. अब आप ही बताइए, क्या यह मेरा चेहरा हो सकता है? क्या यह उस भारत का चेहरा हो सकता है, जिसे दुनिया ने आज से छह दशक पहले देखा था. तब तक मैं शीशे के टुकड़ों को जोड़ लेता हूं.

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