गिरींद्र नाथ झा
ब्लॉगर एवं किसान
शहरों में लोगबाग अपनी बालकनी से बारिश की रिमझिम का आनंद लेते हैं, लेकिन गांव की कहानी कुछ और है, खासकर बाढ़ प्रभावित इलाके की. हालांकि, शहर भी बारिश में अब रोता दिखता है. इस लिहाज से शहरों-ग्रामों को कथित रूप से स्मार्ट बनाने से पहले इनमें ढांचागत सुधार जरूरी हैं, जिनसे ग्रामों से पलायन रुके और शहरों पर आबादी का दबाव न बढ़े.
जुलाई के आखिरी दिनों में बिहार और देश के कई हिस्सों में हुई बारिश ने किसानों का दिल तोड़ दिया है. बारिश से नदियों का जलस्तर बढ़ गया है. कई इलाके बाढ़ की चपेट में हैं.
धान और पटसन समेत कई फसलें चौपट हो चुकी हैं. नेपाल के तराई में भारी बारिश से उत्तर बिहार के 12 जिलों में बाढ़ आ गयी है. मुजफ्फरपुर में बागमती, मधुबनी में कमला-बलान, खगड़िया में कोसी और पूर्णिया-कटिहार में महानंदा जब खतरे के निशान से ऊपर बहने लगती हैं, तो मन टूट जाता है.
मौसम विभाग के अनुसार, देश में चार महीने के माॅनसून सीजन का आधा वक्त बीत चुका है. अब तक इसकी रफ्तार पिछले कई सालों के मुकाबले में सबसे तेज है. जुलाई में अब तक आठ फीसदी ज्यादा बारिश हो चुकी है. देश के 13 राज्यों के कई जिलों में हालात खराब हैं.
बिहार, कर्नाटक और असम में हालात काफी बदतर हैं. लेकिन, मौसम विभाग के आंकड़े अलग कहानी बयां कर रहे हैं. देश के 178 जिलों में सामान्य से काफी कम बारिश हुई है. इनमें ज्यादातर हिस्सों में तो 80 फीसदी तक बारिश हुई है. यह देश के कुल जिलों का एक-चौथाई हिस्सा है.
एक किसान के तौर पर मैं इसे ग्लोबल वार्मिंग का हिस्सा मानता हूं. प्रकृति के संग हम जो छेड़-छाड़ कर रहे हैं, उसका नतीजा किसी अन्य ग्रह के लोग तो नहीं उठायेंगे न! मुझे याद है, पहले बारिश के वक्त गांव में गीत गाये जाते थे. फसल के अनुरूप बादलों का डेरा लगता था. बारिश मतलब केवल हम बरसात का मौसम समझते थे. जब खूब बारिश होती थी, तो हमारे आंगन के चूल्हे पर तरह-तरह की मछलियां लायी जाती थीं. लेकिन, अब ये सब दंतकथाएं लगती हैं.
गरमी शुरू हुई नहीं कि बारिश की बूंदों ने घर-आंगन को जुलाई महीने का आभास करा दिया. बचपन में सुनते थे कि पूर्णिया बिहार का चेरापूंजी है, लेकिन तब भी बारिश बिन मौसम नहीं होती थी. इन दिनों हर महीने एक-न-एक दिन ऐसी बारिश होती है, जो हमें आपदा की तरह दिखती है.
पता नहीं कैसे उस वक्त मेघ अपना रूप विकराल कर लेता है, जब हम पटवन कर लिये होते हैं. मेघ को देख कर एक भय का वातावरण पसर जाता है. मौसम की मार बड़ी खतरनाक होती है.
अब तो कई लोग मौसम को देख कर ही कोई कार्यक्रम बनाते हैं. कुछ कंपनियां तो मौसम की सूचनाओं पर नजर रखती हैं और उसी मुताबिक अपने क्लाइंट को व्यापारिक गतिविधियां या पार्टी वगैरह तय करने की सलाह देती हैं. लेकिन, किसान भला ऐसी कंपनियों से राय कैसे लें. हां, हम आनेवाले दिनों में ऐसी आशा तो रख ही सकते हैं कि अच्छे दिन आयेंगे.
यह कटु सत्य है कि नुकसान उठाना किसानी कर रहे लोगों की नियति है. तब भी हम आशावान हाेते हैं. दरअसल, हम किसानों के हाथ में केवल बीज बोना होता है. फसल होगी या कैसी होगी यह बात प्रकृति के हाथों में हैं. बाढ़ के उपद्रव ने आंखों की कोरों को गीला कर दिया है.
मेरे जैसे किसानों की उम्मीद अब मिर्च के खेतों पर है. किसान हार नहीं मानता. वह इस आशा के साथ आसमां को निहारता रहता है कि इस साल नहीं, तो अगले साल जरूर अच्छी फसल होगी. बाढ़ में धान और पटसन की खेती डूबते हुए देखने के बाद यह एहसास हो रहा है कि कोई तो है, जो हमें हमारी गलतियों की सजा हमें सुना रहा है… और मैं कुमार गंधर्व की आवाज में सुनने लगता हूं- कौन ठगवा नगरिया लूटल हो…