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हेलमेट पर टिका परिवहन!
बिभाष कृषि एवं आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ भारत को, कहा जाता है कि यह सड़क दुर्घटनाओं की राजधानी है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, हर साल चार लाख से ज्यादा सड़क दुर्घटनाएं होती हैं. वर्ष 2011 में कुल 4,97,686 एक्सिडेंट रिपोर्ट किये गये. ट्रैफिक दुर्व्यवस्था ही इसका एकमात्र कारण है. पूरे देश में ट्रैफिक व्यवस्था चरमराई […]
बिभाष
कृषि एवं आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ
भारत को, कहा जाता है कि यह सड़क दुर्घटनाओं की राजधानी है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, हर साल चार लाख से ज्यादा सड़क दुर्घटनाएं होती हैं. वर्ष 2011 में कुल 4,97,686 एक्सिडेंट रिपोर्ट किये गये. ट्रैफिक दुर्व्यवस्था ही इसका एकमात्र कारण है. पूरे देश में ट्रैफिक व्यवस्था चरमराई हुई है, क्या उत्तर, क्या दक्षिण, क्या पूरब, क्या पश्चिम! आमतौर पर समझा जाता है कि उत्तर में ट्रैफिक ज्यादा अव्यवस्थित है, दक्षिण के मुकाबले. लेकिन आंकड़े दूसरी ही बात कहते हैं. 2011 में 68,438 दुर्घटनाओं के साथ महाराष्ट्र प्रथम स्थान पर था, तमिलनाडु 65,873 दुर्घटनाओं के साथ दूसरे और 44,731 दुर्घटनाओं के साथ कर्नाटक चौथे स्थान पर था.
अगर उत्तर के राज्यों के आंकड़ों पर ध्यान दें, तो मध्य प्रदेश 49,406 दुर्घटनाओं के साथ कर्नाटक से पहले तीसरे स्थान पर था. उत्तर प्रदेश में दुर्घटनाओं की संख्या 29,285, और बिहार में 10,673 दुर्घटनाएं रिपोर्ट की गयीं.
वर्ष 2014 के आंकड़ों के अनुसार, सड़क दुर्घटनाओं में मरनेवालों की कुल संख्या 1,39,671 थी. जबकि वर्ष 2011 में यह संख्या 1,42,485 थी, यानी मरनेवालों और दुर्घटनाओं का अनुपात एक चौथाई से ज्यादा ही है. यदि सड़क दुर्घटनाओं में कुल मौतों की संख्या देखी जाये, तो भारत चीन के बाद पहले नंबर पर आयेगा, लेकिन अगर प्रति एक लाख जनसंख्या के आधार पर देखा जायेगा, तो 20.74 मौतों के साथ भारत 64वें स्थान पर है और 43.54 मौतों के साथ ईरान प्रथम स्थान पर है.
सड़क यात्रा को सुरक्षित बनाने के लिए राज्य और केंद्र सरकारों द्वारा बहुत उपाय किये गये हैं. पूरे देश में चार लेन रोड का जाल बिछाया गया है. अब कई जगहों पर एक्स्प्रेस वे भी बनाये गये हैं. समय-समय पर मोटर वेहिकल एक्ट में भी परिवर्तन किया जाता है. राज्यों की ट्रैफिक पुलिस भी मुस्तैदी से लगी हुई हैं, लेकिन कोई राहत की किरण नजर नहीं आती.
मैंने दो विशिष्ट हाइवे को पिछले कुछ वर्षों में आते-जाते देखा है. एक जयपुर से किशनगढ़ और दूसरा नेशनल हाइवे नंबर दो पर इलाहाबाद बाइपास. इन दोनों सड़कों के दोनों तरफ बाड़ लगा कर सुरक्षित किया गया था कि वाहन निर्बाध रूप से इन पर चल सकेंगे. शुरू-शुरू में बड़ा सुखद अनुभव था इन सड़कों पर वाहन चलाना. लेकिन शीघ्र ही बाड़ों को तोड़ दिया गया. कारण, गांव वाले अपना रास्ता बनाना चाहते होंगे या फिर लोहे-स्टील की चोरी. इन रास्तों पर वाहनों के रुकने के लिए जगह निर्धारित थे, लेकिन अब जगह-जगह रास्ते के किनारे ढाबे खुलते जा रहे हैं, जिसका असर परिवहन सुरक्षा पर पड़ रहा है. गांव के जानवर सड़कों पर स्वच्छंद विचरण करते हैं.
साफ है कि सड़कों को बनाने के बाद सड़कों का रख-रखाव और निगरानी नहीं की जा रही है. यह सारी सड़कें टोल रोड हैं. इसकी जिम्मेवारी सड़क बनानेवाली कंपनी की होनी चाहिए. जरूर इन्हें स्थानीय प्रशासन और नागरिकों का सक्रिय सहयोग चाहिए. नेशनल हाइवे और सुपर एक्स्प्रेसवे के लगातार रख-रखाव और निगरानी से हाइवे पर के अतिक्रमण के कारण होनेवाली दुर्घटनाओं से राहत मिल सकती है. जरूरत पड़ने पर गांवों पर फाइन लगाया जा सकता है.
जर्मनी में बहुत समय बितानेवाले एक कंपनी के मुखिया ने बताया कि वहां सभी कॉमर्शियल वाहनों की ट्रेकिंग की जाती है और एक निश्चित समय बाद उन्हें एलर्ट किया जाता है कि अब ड्राइवर को गाड़ी रोक कर सोना है. हाइवे पर ही उनके रहने-सोने की व्यवस्था होती है.
निश्चित अवधि की नींद के बाद ही ड्राइवर फिर वाहन चला सकता है. हाइवे पर होनेवाली कई दुर्घटनाएं इसलिए होती हैं कि ड्राइवर की नींद पूरी नहीं होती है. हाइवे पर शराब पीकर वाहन चलाना एक अन्य कारण है दुर्घटनाओं का, लेकिन राज्य सरकारें राजस्व के लालच में सारे मानक तोड़ कर हाइवे पर शराब के दुकानों की अनुमति देती हैं. हाइवे पर दुर्घटनाओं का एक अन्य कारण है त्रुटिपूर्ण लेन ड्राइविंग. हाइवे पर सभी वाहन चालक मनमाने ढंग से चलते हैं और ओवर-टेक करते हैं. लेन ड्राइविंग के नियंत्रण की कोई समुचित व्यवस्था नहीं है.
कई देश सीसीटीवी या सैटेलाइट से नियंत्रण रखते हैं.शहरों के अंदर ट्रैफिक का हाल और भी बुरा है. ज्यादातर शहरों में चौराहों पर पहले तो समुचित ट्रैफिक सिग्नल की व्यवस्था ही नहीं है, और है भी तो उसे कौन मानता है और कौन मनवाता है! सबको जल्दी पड़ी रहती है जाने की. कॉमर्शियल वाहन जैसे बस, तिपहिया, टैक्सी आदि सवारियां उठाने के लिए कहीं भी रोक देंगी. सवारियों की होड़ में आड़ा-तिरछा काट कर वाहन आगे निकालना आम बात है.
कई देशों में दो वाहनों के बीच की न्यूनतम दूरी तय की गयी है, जिससे आपात स्थिति में ब्रेक आदि लगाने का समय हो. लेकिन हम तो गाड़ी-से-गाड़ी सटा कर चलाने पर गर्व करते हैं. लोगों के ट्रैफिक व्यवहार पर कई अध्ययन उपलब्ध हैं और पाया गया है कि लोग ट्रैफिक सेफ्टी नियमों की जानकारी रखते हैं, लेकिन व्यवहार में नहीं लाते हैं. अगर पकड़े भी जाते हैं, तो किसी तरह से पुलिस और न्याय-व्यवस्था को प्रभावित करने या छकाने के लिए अपने प्रभाव और संपर्कों का इस्तेमाल करते हैं.
शहरों में नॉन-मोटराइज्ड परिवहन जैसे पैदल, साइकिल, रिक्शा, हाथ-ट्राली आदि के लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं है. सभी शहरों में पैदल चलने की पटरियां हॉकरों से पटी पड़ी हैं. हाल में लखनऊ और दिल्ली में साइकिल चालकों के लिए अलग ट्रैक बनाया गया है, लेकिन वह नाकाफी है. जिस तरह से शहरों में कॉमर्शियल वाहन के प्रवेश पर रोक है, उसी तरह नॉन-मोटराइज्ड कॉमर्शियल वाहन जैसे हाथ-ट्राली के परिचालन का समय भी निर्धारित होना चाहिए.
ट्रैफिक नियंत्रण और नियमन जितना सरकार के हाथ में है उससे ज्यादा नागरिकों के हाथ में है. ट्रैफिक नियम मानना न मानना नागरिकों के हाथ में है. इससे ट्रैफिक प्रशासन पर भी भार कम पड़ेगा और हमारी जिंदगियां भी बचेंगी.
वर्ष 2014 में 59 प्रतिशत मौतें 25 से 64 उम्र, सक्रिय उत्पादक वर्ग में हुईं. सिर्फ हेलमेट और सीट-बेल्ट की जांच पर टिकी ट्रैफिक नियमन की व्यवस्था हास्यास्पद लगती है. जिस देश में दो करोड़ से ज्यादा नये वाहन हर साल सड़क पर आते हैं, वहां नियंत्रण में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है.
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