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बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती के विरुद्ध उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ भाजपा नेता दयाशंकर सिंह द्वारा प्रयुक्त अपमानजनक संबोधनों की चौतरफा निंदा हुई है. पार्टी से निकाले जाने के बाद अब उनके खिलाफ मुकदमा भी दर्ज हो गया है. सिंह के खिलाफ बसपा कार्यकर्ताओं का प्रदर्शन भी जायज है. लेकिन, इन प्रदर्शनों के […]

बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती के विरुद्ध उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ भाजपा नेता दयाशंकर सिंह द्वारा प्रयुक्त अपमानजनक संबोधनों की चौतरफा निंदा हुई है. पार्टी से निकाले जाने के बाद अब उनके खिलाफ मुकदमा भी दर्ज हो गया है. सिंह के खिलाफ बसपा कार्यकर्ताओं का प्रदर्शन भी जायज है. लेकिन, इन प्रदर्शनों के दौरान उक्त नेता के परिवार की महिलाओं के बारे में की गयीं अभद्र टिप्पणियां भी उतनी ही निंदनीय हैं. कुछ बसपा नेताओं द्वारा दयाशंकर सिंह की जीभ काटने के एवज में लाखों रुपये के इनाम की घोषणा भी बहुत चिंताजनक है.
हाल के दिनों में ऐसी अन्य हिंसक घोषणाएं भी हुई हैं, पर ऐसा करनेवाले उग्र सांप्रदायिक संगठनों से संबद्ध रहे हैं. किसी राजनीतिक दल के जिम्मेवार लोगों द्वारा सिर और जीभ काटने की बात करना हमारे सार्वजनिक जीवन के वर्तमान और भविष्य के लिए बेहद खतरनाक प्रवृत्ति का संकेत है. दयाशंकर जैसे नेताओं को कानूनी प्रावधानों के तहत सजा दी जानी चाहिए, लेकिन ऐसे मामलों में न्याय का अधिकार किसी हिंसक भीड़ को कतई नहीं है. बसपा का दावा है कि उसकी राजनीति के आदर्श महात्मा बुद्ध और बाबा साहेब आंबेडकर के सिद्धांत हैं तथा उसका लक्ष्य सामाजिक न्याय की प्रतिष्ठा है.
हिंसक धमकी और अमर्यादित भाषा निश्चित रूप से उन महापुरुषों के संदेशों के विपरीत है. बसपा और उसके कार्यकर्ताओं के रोष के साथ पूरे देश के विचारवान तबके की सहानुभूति है तथा संसद से लेकर सड़क तक दयाशंकर सिंह की भर्त्सना भी हुई है. उनके खिलाफ मुकदमा दायर होने के बाद यह भी उम्मीद की जानी चाहिए कि अदालत के मार्फत उन्हें समुचित दंड भी मिलेगा. पर गुस्से और उत्तेजना का हिंसक तेवरों में बदलना किसी भी रूप में सही नहीं ठहराया जा सकता है.
अगर हमारी राजनीति मर्यादा की तमाम हदें लांघने का उतावलापन दिखायेगी, तो अंततः इसकी परिणति एक भयावह समाज के रूप में ही होगी, जहां न तो कानून का राज बचेगा और न ही तार्किक बहस-मुबाहिसे की कोई गुंजाइश. क्या एक सभ्य, शांतिपूर्ण और समृद्ध समाज की हमारी आकांक्षाएं इस रास्ते पूरी हो सकेंगी? क्या हिंसा एक न्यायपूर्ण भविष्य की गारंटी हो सकती है?
क्या सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक समानता के हमारे सपने अशालीन भाषा और हिंसक भीड़ से संचालित घृणा और भय के माहौल में कभी हकीकत बन सकेंगे? संतुलित समाज और सचेत नागरिक के बतौर इन सवालों से हमें जूझना होगा. राजनीति वह धुरी है, जिसके इर्द-गिर्द हमारे आज और आनेवाले कल का ताना-बाना बुना जाता है. अगर यह धुरी ही विषाक्त हो जायेगी, तो राष्ट्रीय जीवन में भी जहर भर जायेगा.

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