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गांधी बाबा यह टोपी आपकी नहीं

।। दीपक कुमार मिश्र।। (प्रभात खबर, भागलपुर) स्वर्ग में बैठे गांधी बाबा इन दिनों यह देख कर खुश हो रहे होंगे कि चलो कुछ और नहीं, तो देशवासियों ने टोपी के जरिए ही हमें याद तो रखा है. पर बापू इस भुलावे में नहीं रहियेगा. यह टोपी आपकी टोपी (गांधी टोपी) नहीं है. यह तो […]

।। दीपक कुमार मिश्र।।

(प्रभात खबर, भागलपुर)

स्वर्ग में बैठे गांधी बाबा इन दिनों यह देख कर खुश हो रहे होंगे कि चलो कुछ और नहीं, तो देशवासियों ने टोपी के जरिए ही हमें याद तो रखा है. पर बापू इस भुलावे में नहीं रहियेगा. यह टोपी आपकी टोपी (गांधी टोपी) नहीं है. यह तो ‘आप’ से लेकर ‘नमो’ व ‘सपा’ की टोपी है. इस टोपी के मूल में न तो देशभक्ति है, न ही आजादी को अक्षुण्ण बनाये रखने का संकल्प.

यह तो राजनीतिक फैशन की टोपी है. यह टोपी उसी मुहावरे की तरह है कि ‘हमने तो उसको टोपी पहना दी.’ गांधी टोपी देश की शान थी और गांधीवादियों की पहचान भी. गांधी टोपीधारी का एक अलग ही सम्मान था, क्योंकि लोगों को यह भरोसा था कि यह बापू का अनुयायी है इसलिए गलत नहीं करेगा. देश व समाज के लिए सोचेगा और ऐसा होता भी था. बाद में यह गांधी टोपी कांग्रेस की बैठकों में परंपरागत ड्रेस कोड के रूप में इस्तेमाल होने लगी. इसके बाद जमाना आया पट्टे का. भाजपा और कांग्रेस के लोग चुनाव चिह्न् वाले पट्टे का इस्तेमाल करने लगे. नेता व कार्यकर्ता इसे अंगवस्त्र की तरह इस्तेमाल करते हैं.

आज भी गांधी टोपी का सम्मान अपने देश में है. जब ‘आप’ अपनी बुलंदी पर पहुंची, तो अचानक देश में टोपी की अहमियत बढ़ गयी. पिछले दिनों भाजपा की दिल्ली में हुई बैठक में कई लोग भगवा टोपी पहन कर आये जिस पर नमो की जयजयकार थी. इसके पहले सपा ने अपने कार्यकर्ताओं से कहा कि पार्टी के कार्यक्रमों में पार्टी की पहचान वाली लाल टोपी पहन कर आयें. स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान गांधी टोपी की अहमियत थी. वह राष्ट्र-प्रेम का प्रतीक थी. आज टोपी राजनीति का पहला पाठ हो गयी है. दाद देनी होगी टोपीवालों को. वह टोपी अपने लिए पहन रहे हैं या देश की जनता को टोपी पहनाना चाहते हैं. टोपी में गांधी बाबा की तरह देशप्रेम का कोई संकल्प तो छिपा नहीं दिख रहा है. संकल्प है तो बस टोपी के सहारे सत्ता तक पहुंचने का. लेकिन इतना तो तय है कि चुनाव सामग्री बेचनेवाले कारोबारियों की आम चुनाव के दौरान चांदी रहेगी.

टोपी के बाद चाय और का जलवा इन दिनों राजनीतिक गलियारे में देखने को मिल रहा है. चाय के लिए उसी तरह संघर्ष हो रहा है, जिस तरह अमृत के लिए देवताओं व असुरों में हुआ था. पुराने लोग बताते हैं कि अंग्रेजी-राज में मुफ्त में कंपनियां चाय बांटती थीं. और जब लोगों को चाय की आदत लग गयी, तो फिर जम कर दाम वसूलना शुरू किया. अभी भगवा दल के लोग चाय व चायवाले की मार्केटिंग खूब कर रहे हैं. नरेंद्र मोदी में और कई गुण होंगे, लेकिन सबसे अधिक जोर उनकी चायवाली पहचान पर है. नमो टी स्टॉल तक खुल गये हैं. क्या अंग्रेजी राज की तरह बाद में चाय का पूरा दाम वसूला जायेगा. राजनीति इस स्तर पर नहीं पहुंचे कि सेवा की जगह राजनीति का पैमाना चाय बन जाये.

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