अश्विनी कुमार
प्रोफेसर, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, मुंबई
भारत के आर्थिक सलाहकार और वित्त मंत्रालय के अधिकारियों को भले ब्रेक्जिट में अपने लिए अवसर दिखे, पर यह संकट 2008 की आर्थिक मंदी से भी बड़ा साबित हो सकता है. शरणार्थियों को लेकर गुस्सा, आतंकी घटनाओं में वृद्धि और उत्तर पूंजीवाद के सिकुड़ते फायदे ये दिखाते हैं कि दुनिया एक गहरे आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संकट की तरफ बढ़ रही है.
संदेह नहीं कि 28 राष्ट्रों के राजनीतिक-आर्थिक संगठन यूरोपियन यूनियन ने यूरोप को दो विश्व युद्धों की त्रासदी से बाहर निकलने और आधी सदी से भी लंबे समय तक शांत रखने में बड़ी भूमिका निभायी है. पर ब्रेक्जिट के मुद्दे पर यूके क्षेत्र, वर्ग और धर्म के आधार पर पूरी तरह बंटा नजर आया. नतीजा, ब्रिटेन बिखर गया, पर साथ में लंदन जिंदाबाद की एक नयी ललक भी पैदा हुई.
जनमत संग्रह से पहले मैंने यूरोप का दौरा किया था. मुझे हर कहीं टूटी सड़कें, आर्थिक तौर पर बदहाल शहर, क्षतिग्रस्त पुल, बरबाद स्कूल, बेरोजगार बैठे सैनिक और कम वेतन पर काम करते वृद्ध और रिटायर लोग मिले. वहां शरणार्थियों और अनजान लोगों को लेकर भय दिखा. मेरे शोध साथी वहां के कई लेखकों-कवियों की तरह इस बात से परेशान दिखे कि कहीं अनजान लोग उनकी जमीन, रोजगार, कल्याणकारी सुविधाओं के साथ सांस्कृतिक पहचान को न समाप्त कर दें.
इस कथित खतरे ने वहां जिस लीव ग्रुप को जन्म दिया, वे लगातार ऐसी बातें प्रचारित कर रहे थे कि यूरोपियन यूनियन के अधिकारी अब कैडबरी चॉकलेट तक का साइज तय करेंगे. इन सबके बावजूद अगर कंजरवेटिव पार्टी के नेता और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरून लोगों को यह यकीन दिला पाते कि बाहर से आये लोगों का ब्रिटेन का खजाना भरने में बड़ी भूमिका है, तो हालात कुछ और होते. इसी तरह लेबर पार्टी के नेता जेरोमी कॉरबिन अगर वहां के कामकाजी और मध्यवर्ग को नहीं उकसाते, तो ब्रेक्जिट को टाला जा सकता था.
विश्लेषकों की नजर में ब्रेक्जिट भूमंडलीकरण, सांस्कृतिक बहुलतावाद के खिलाफ और ब्रिटेन की अपनी पहचान के हक में जनमत है. इस जनमत संग्रह में 71.8 फीसदी लोगों ने हिस्सा लिया. इनमें 51.9 फीसदी लोग ‘लीव’ ग्रुप के साथ गये, जबकि 48.1 फीसदी लोग ‘रिमेन’ के साथ गये.
साफ है कि दोनों के बीच आंकड़े का फर्क बहुत ज्यादा नहीं है. मैं इसे लोकतंत्र बनाम लोकतंत्र, उत्तर पूंजीवाद बनाम परंपरागत पूंजीवाद और प्रगतिशील भूमंडलीकरण और प्रतिगामी भूमंडलीकरण के बीच संघर्ष के तौर पर देखता हूं. इस संघर्ष के बीच कल्याणकारी राज्य की पुरानी समझ भी बदल रही है और इसकी जगह आकार ले रहा है एक नये तरह का राष्ट्रवाद, जिसकी बनावट को नस्लभेद, शरणार्थी समस्या नये सिरे से तय कर रहे हैं.
इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि वैश्वीकरण ने दक्षिण के ऐसे देशों, जो श्रम के लिहाज से खासे समृद्ध थे, के लिए अवसरों के कई द्वार खोले. बड़े बाजार और आउटसोर्सिंग ने जहां उनकी स्थिति बेहतर की, वहीं उत्तर के देशों में हाल तक खुद को सुरक्षित माननेवाले श्रमिक वर्ग के बीच आर्थिक और सांस्कृतिक असुरक्षा का भय बढ़ने लगा. दूसरे शब्दों में- पूंजीवाद का पुराना चरित्र कहीं ज्यादा उदार, मानवीय और उत्पादक था. इस दौरान उपनिवेशवाद ने भी पैर पसारे, जिस कारण एक वैकल्पिक आर्थिक नीति के लिए ललक हर तरफ दिखी. पर नब्बे के दशक से बढ़े वैश्वीकरण के जोर ने समतावादी समाज रचना के आगे कई नयी समस्याएं पैदा कीं. पूंजीवाद का नया रूप नैतिक रूप से ज्यादा भ्रष्ट, राजनीतिक रूप से जर्जर और मनहूस साबित हुआ.
हमारे लिए चिंता का विषय यह नहीं है कि देशों, अर्थव्यवस्थाओं और संस्कृति को यूनियन की शक्ल देनेवाली अवधारणा कमजोर हो रही है. बड़ी परेशानी का सबब तो यह है कि अपनी पहचान को लेकर संकट का फोबिया हिंसक रूप से विस्तार पा रहा है. जो लोग फेसबुक पर कैमरून को तत्काल रिपब्लिक ऑफ इंडिया का हिस्सा बनने के लिए आवेदन की सलाह दे रहे हैं, उनके व्यंग्य में छिपे संदेश को समझना जरूरी है.
दरअसल जर्जर, भयभीत और संकीर्ण मानसिकता वाले यूरोपीय नौकरशाहों और महानगरों के लिए वक्त आ गया है कि वे यूरोप की छोटी दुनिया से बाहर निकल कर अतुल्य भारत का अभिवादन करें. ब्रिटेन के ‘लीव’ और ‘रिमेन’ दोनों समूहों के लिए जरूरी है कि वे भारत की विविधता के बीच एकता के समन्वयकारी सूत्र से सबक लें, ताकि न सिर्फ ब्रिटेन, बल्कि एक सर्व समावेशी और लोकतांत्रिक विश्व के निर्माण में वे सहायक बनें.
(अनुवाद : प्रेम प्रकाश)