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नफरत के साये में बांग्लादेश

नासिरुद्दीन वरिष्ठ पत्रकार इस मुल्क में कुछ लोगों को हिंदू, बौद्ध, ईसाई, धर्मनिरपेक्ष, नास्तिक, प्रोफेसर, स्टूडेंट, साहित्यकार, समलैंगिक, आजाद ख्याल लड़कियां और आजाद विचार नापसंद हैं. नापसंद, शायद हल्का लफ्ज है. नफरत, ज्यादा सटीक होगा. उनके पास ऐसे लोगों का एक ही हल है- वे इन्हें हमेशा के लिए खत्म कर देना चाहते हैं. क्योंकि […]

नासिरुद्दीन
वरिष्ठ पत्रकार
इस मुल्क में कुछ लोगों को हिंदू, बौद्ध, ईसाई, धर्मनिरपेक्ष, नास्तिक, प्रोफेसर, स्टूडेंट, साहित्यकार, समलैंगिक, आजाद ख्याल लड़कियां और आजाद विचार नापसंद हैं. नापसंद, शायद हल्का लफ्ज है. नफरत, ज्यादा सटीक होगा. उनके पास ऐसे लोगों का एक ही हल है- वे इन्हें हमेशा के लिए खत्म कर देना चाहते हैं. क्योंकि वे अपने ही मजहब की हुकूमत कायम करने का ख्वाब देखते हैं.
तय है, यह मुल्क भारत नहीं है. लेकिन भारत से दूर भी नहीं है. भारत और इसकी आबोहवा एक जैसी है. फर्क सिर्फ इंसान की बनायी सरहद का है. इस मुल्क को हम ‘बांग्लादेश’ के नाम से बखूबी जानते हैं. इसका पूरा नाम है, ‘गणोप्रोजातोंत्री बांग्लादेश’. बांग्ला भूमि में रहनेवाले गण का प्रजातंत्र. यानी यह किसी खास मजहब के माननेवालों का मुल्क नहीं है.
इस मुल्क के राष्ट्रीय प्रतीक में भी किसी मजहब की निशानी नहीं मिलती. नदी में तैरता नलिनी-कुमुदनी का फूल है. धान की बालियां हैं. पटुआ की पत्तियां हैं. धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, लोकतंत्र और राष्ट्रीयता के चमकते चार तारे हैं. यानी जो प्रतीक हैं, वे तो जिंदगी और तहजीब की बुनियाद हैं. इसका राष्ट्रीय गीत भी किसी मजहब या ईश्वर का गुणगान नहीं करता. यह गीत गाता है, ‘मेरे सोने के बांग्ला, मैं तुमसे बहुत मोहब्बत करता हूं’. दिलचस्प बात है कि इसकी रचना भी उन्हीं गुरुदेव की है, जिन्होंने ‘जन गण मन…’ रचा था.
यही नहीं, यह वह मुल्क है, जिसने कई मिथकों को तोड़ा. इसने एक खतरनाक ख्याल को धराशायी कर जन्म लिया. इसने द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को न सिर्फ गलत ठहराया, बल्कि हकीकत में इससे पल्ला भी छुड़ा लिया. मजहबी पहचान ही राष्ट्र की पहचान है- सबसे पहले इसी भूमि ने इस विचार को बेबुनियाद साबित किया. इसने इस मिथक को तोड़ा कि मजहब ही लोगों की एकता की बुनियाद हो सकता है.
इसने यह भी दिखाया कि आमजन के लिए तहजीब, रोजमर्रा की जद्दोजेहद, उसकी बोली-बानी, उसका खान-पान, उसकी रवायत कितनी अहमियत रखती है. इसलिए 1947 में जिसे पाकिस्तान बनाया गया था, 1971 में उसका एक हिस्सा बांग्लादेश हो गया.
इसने जन्म के साथ ही अपने लिए कुछ मूल्य तय किये. इसमें धर्मनिरपेक्षता सबसे अहम है. यानी धर्म, पंथ, श्रद्धा, विचार, लिंग का फर्क किये बिना बांग्लाभूमि हर उस इंसान की है, जो यहां का वासी है. इसीलिए बांग्लादेश महज एक मुल्क नहीं, बल्कि यह धर्म से परे एक आजाद और बहुरंगी विचार है.
इस बहुरंगी विचार को पिछले कुछ वर्षों से कुछ लोगों/संगठनों ने एकरंगा बनाने की कोशिशें तेज कर दी हैं. वे बांग्लादेश नाम के विचार को खत्म करना चाहते हैं. इसीलिए, वे अल्पसंख्यकों की जान ले रहे हैं. वे हर उस दिमाग को मार रहे हैं, जो ‘मुक्त मन’ से सोचने-लिखने-बोलने का काम कर रहे हैं. उनके लिए हर वह दिमाग खतरा है, जो समाज और सियासत में मजहब की बेजा दखलअंदाजी की नुक्ताचीनी करता है.
वैसे, वे तो अपने मजहब माननेवालों को भी नहीं बख्श रहे हैं. वे अपने मजहब वालों को इसलिए मार रहे हैं कि वे मुल्क में धर्मनिरपेक्षता बचाना चाहते हैं. वे शियाओं को मार रहे हैं, सूफियों पर हमलावर हैं.
कोई अगर स्त्री-मर्द की यौनिकता से इतर किसी और यौनिकता की बात करता है या मानता है, तो वे उसे भी खत्म कर रहे हैं. वे हर उस इंसान को चुप कर दे रहे हैं, जो इन सबके हक में किसी न किसी तरह खड़ा है.
वे अपने को मजहब का रखवाला बताते हैं. पग-पग पर मजहब का नाम लेते हैं. धर्म का जयकारा लगाते हैं और चुपके से नापसंदीदा विचार वालों को मार कर गायब हो जाते हैं. फिर वे हवा में तैरते हुए इंटरनेट की दुनिया में कहीं से नमूदार होते हैं. अपने जुर्म को जायज ठहराने के लिए धर्म का सहारा लेते हैं. एेलान करते हैं- ‘हम भूलते नहीं. हम भूलेंगे नहीं. इंतजार कीजिए, अगली बारी किसकी है.’आखिर वे चाहते क्या हैं? वाजिब सवाल है.
वे बांग्लादेश की बुनियाद उखाड़ना चाहते हैं. उन्हें धर्मनिरपेक्षता जैसे लफ्ज से नफरत है. वे बांग्लादेश में अपने ही मजहब का राज कायम करना चाहते हैं. उनकी ख्वाहिश है कि चूंकि उनके मजहब वालों की तादाद यहां ज्यादा है, इसलिए सब कुछ उन्हीं के मुताबिक चलना चाहिए.
वे कहते नहीं हैं, लेकिन उनकी ख्वाहिश है कि अल्पसंख्यक और आजाद ख्याल वाले दिमाग या तो खत्म कर दिये जायें या उनके मातहत रहें. अल्पसंख्यकों के साथ बराबरी का ख्याल उनके जेहन में दूर-दूर तक नहीं है. इनकी शक्लें भले ही अलग-अलग दिखती हों, पर वे एक खास तरह का एकरंगा विचार हैं. वे अलग-अलग नामों से सामने आते हैं. कभी जमायतुल मुजाहिदीन-बांग्लादेश, तो कभी अंसार बांग्ला टीम. कभी अंसार अल-इसलाम, तो कभी अलकायदा महादेश. और तो और इसलामिक स्टेट वाले भी हैं.
लगता है, इतिहास अपने को दोहरा रहा है. साढ़े चार दशक पहले भी इस भूमि में विचारों का जबरदस्त संघर्ष हुआ था. हारते हुए विचार ने हिंसा का सहारा लिया था और लगभग एक हजार साहित्यकारों, पत्रकारों, टीचरों को मार डाला था. उस वक्त मारनेवाले की शक्ल अलग थी, लेकिन विचार यही एकरंगा था. मारे गये बुद्धिजीवी बहुरंगी विचार की वकालत कर रहे थे.
साढ़े चार दशक बाद इस भूमि पर जुल्हाज मन्नान, तनय मजूमदार, मीर सनव्वर रहमान, देबेश चंद्र प्रमाणिक, अहमद राजिब हैदर, आसिफ मोहिउद्दीन, अभिजीत राॅय, अनंत बिजय दास, शफीउल इसलाम, निलय नील, रेजाउल करीम जैसे सोचने-लिखने-बोलने-पढ़नेवाले दिमाग भी लगातार इसीलिए मारे जा रहे हैं, क्योंकि ये बहुरंगा धर्मनिरपेक्ष बांग्लादेश चाहते हैं. हर पल मौत का साया भी ऐसे ‘मुक्त दिमागों’ को खामोश नहीं करा पा रहा है. हर कुछ दिन बाद उनकी लिस्ट में नया नाम जुड़ रहा है. इसका मतलब है, दावं पर बहुत बड़ी और कीमती चीज लगी है.
… और वह सरकार जो अपने को बांग्लादेश के विचार का वारिस कहती है, बांग्लादेश के ख्याल को जिंदा रखनेवाले दिमागों का खून होते देख रही है. अगर वह मजहबी जुनून वालों को नजरंदाज कर रही है, तो यकीन जानिये कि इसकी बहुत भारी कीमत बांग्लादेश को चुकानी पड़ेगी.

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