जब रोम जल रहा था तब नीरो बांसुरी बजा रहा था. कुछ इसी तर्ज पर जब उत्तर प्रदेश में लगी नफरतों की आग ठीक से काबू में नहीं आयी थी, तब समाजवादी पार्टी की सरकार सैफई में महोत्सव के नाम पर रंगरलियां मनाने में मशगूल रही.
प्रदेश की सेवा का मौका देने की मांग के लिए युवा अखिलेश को लोगों ने एक नयी आशा की किरण के रूप में देखा और उन्हें सत्ता सौंप दी. लेकिन, अफसोस कि कुछ ही समय में पिता, चाचा व अन्य खासमखास के शिकंजे में फंस चुकी साइकिल दिशाहीन नजर आने लगी.
प्रदेश सरकार ने असंवेदनशीलता की सारी हदें लांघीं, दंगों का दंश ङोल चुके दंगा पीड़ितों के पुनर्वास को लेकर. लोहिया के चेले मुलायम क्या यह बात भूल चुके हैं कि जिंदा कौंमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं? अगर हां, तो उन्हें एक नजर दिल्ली में हुई राजनीतिक क्रांति पर डालनी चाहिए.
अंकित मुत्त्रीजा, खानपुर, दिल्ली