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सफल नहीं होती शराबबंदी

आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया मशहूर समाजशास्त्री एमएन श्रीनिवास ने कहा था कि गौहत्या पर प्रतिबंध की तरह ही शराबबंदी भी एक सांस्कृतिक कार्य है. श्रीनिवास के मुताबिक, इन प्रतिबंधों के लिए जो भी औचित्य गिनाये जायें, लेकिन हकीकत में इसके पीछे ब्राह्मणवादी और सवर्णवादी सोच है. हमें आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए कि […]

आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
मशहूर समाजशास्त्री एमएन श्रीनिवास ने कहा था कि गौहत्या पर प्रतिबंध की तरह ही शराबबंदी भी एक सांस्कृतिक कार्य है. श्रीनिवास के मुताबिक, इन प्रतिबंधों के लिए जो भी औचित्य गिनाये जायें, लेकिन हकीकत में इसके पीछे ब्राह्मणवादी और सवर्णवादी सोच है. हमें आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए कि हमारे संविधान निर्माताओं ने एक ही दिन 24 नवंबर, 1948 को इन दोनों मुद्दों पर बहस की थी. मैं यहां यह तथ्य इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि बिहार सरकार ने राज्य में हर तरह की शराब को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया है. केरल और गुजरात के साथ ही पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में पहले से ही शराब पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा हुआ है.
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद को लोहियावादी मानते हैं, लोहियावादी होने का अर्थ है राममनोहर लोहिया के आदर्शों पर चलना. मैंने भी लोहिया के विचारों को पढ़ा है, मेरे पास नौ खंडों में उनके विचारों का संकलन है. इन खंडों में कहीं भी प्रतिबंध पर ज्यादा कुछ नहीं मिलता है, सिर्फ आकस्मिक संदर्भ भर हैं.
महात्मा गांधी की तरह राममनोहर लोहिया शराब पीने के नुकसान पर संभाषण नहीं करते हैं. सिर्फ एक जगह (खंड 6 में) लोहिया कलकत्ता क्लब का संरक्षक होने के चलते भारत के राष्ट्रपति की आलोचना करते हैं क्योंकि कलकत्ता क्लब की मुख्य गतिविधि शराब पीना है. उन्होंने एक जगह यह लिखा है.
लोहिया ने अपनी आलोचना में नैतिकता को नहीं, बल्कि पाखंड को रेखांकित किया है. वे कहते हैं- ‘शराब के उपभोग को हतोत्साहित करनेवाले गणराज्य के राष्ट्रपति का एक ऐसे क्लब का संरक्षक होना, जहां शराब परोसी जाती हो, अपने आप में एक छलावा और धूर्तता है, जो भारत की उच्च जातियां अपने और देश के साथ करती आ रही हैं.’ एक अन्य जगह लोहिया शराबबंदी को ‘गैरजरूरी मामला’ करार देते हैं, जो कांग्रेस नेताओं को पसंद आता रहा. लोहिया को मालूम था कि ऐसी पाबंदी कहीं भी कामयाब नहीं रही है. दरअसल, शराबबंदी के अपने नुकसान भी हैं. पहला नुकसान, शराब बिक्री से मिलनेवाले राजस्व से राज्य वंचित हो जाते हैं. दूसरा, मौका-माहौल में शराब पीनेवाले भी कभी-कभार अपराधी हो जाते हैं. और तीसरा, इससे पुलिस का अपराधीकरण होता है.
1920 में जब अमेरिका में शराब पर प्रतिबंध लगा था, तब कई शराब माफिया पैदा हो गये थे. अल कपोने नामक शराब माफिया ने ताे शिकागो शहर की पुलिस व्यवस्था को भ्रष्ट बना दिया था.
गुजरात में दशकों से शराबबंदी है, लेकिन वहां शराब खुलेआम मिलती है, क्योंकि राज्य पुलिस हर स्तर पर भ्रष्ट हो चुकी है. चूंकि पूर्ण शराबबंदी असंभव है, इसलिए सरकार ने कुछ छूट भी दिया हुआ है. मध्य वर्गीय गुजराती ‘परमिट’ लिये घूमते हैं, जो उन्हें स्वास्थ्य जरूरतों के आधार पर शराब पीने की छूट देता है. ज्यादातर मामलों में यह परमिट फर्जी होता है.
पाकिस्तान के कराची में शराब की लाइसेंसी दुकानें देख कर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ. आज पाकिस्तान में भारतीय पर्यटक कानूनी तौर पर शराब पी सकते हैं, लेकिन गुजरात में नहीं. यह बात उल्लेखनीय लगती है. जब शराबबंदी सफल हो ही नहीं सकती, तो फिर राज्य सरकारें प्रतिबंध लागू करने के लिए बेचैन क्यों रहती हैं?
शायद वे इस भरोसे से प्रेरित होते हैं कि इससे एक बेहतर और अधिक नैतिक समाज बनता है. यह भी एक फालतू तर्क है. मिसाल के तौर पर यूरोपीय देशों में शराब पर कोई प्रतिबंध नहीं है, लेकिन वहीं अरब के अधिकतर देशों में पाबंदी है. इनमें से कौन-सा समाज अधिक नैतिक और बेहतर है? और भारत इन दोनों में किसका अनुसरण करना चाहता है?
वर्ष 1948 में हुई संविधान सभा की बहस में गौ-मांस खाने के खिलाफ दो तरह के तर्क दिये गये थे. गौहत्या पर प्रतिबंध को लेकर प्रो शिब्बन लाल सक्सेना जैसे सदस्यों के तर्क आर्थिक कारणों पर आधारित थे. पशु संपत्ति का एक रूप है- गाय दूध देती है और बैल हल जोतने के काम आता है.
आज के मशीनी दौर में ऐसे तर्क अप्रासंगिक हैं. आज बहुत कम ऐसे किसान हैं, जो बैल से खेत जोतते हैं. उस बहस में मध्य प्रांत के डॉ रघु वीरा का तर्क ठोस था. यह हिंदू धर्म की मान्यताओं पर आधारित था जिनमें ‘ब्रह्म हत्या और गोहत्या’ को समान माना गया है. इसका अर्थ यह है कि किसी ज्ञानी और वैज्ञानिक (यानी ब्राह्मण) की हत्या की वही सजा है, जो गोहत्या के अपराध की है.
संविधान सभा की उन बहसों में हिंदुत्व शराबबंदी के बहस में आता रहा. बंबई के बीजी खेर ने कहा था, ‘मदिरा सेवन शास्त्रों द्वारा निर्धारित पांच बड़े पापों में एक है’. शास्त्रों में तो पटेलों के पढ़ने-लिखने की भी मनाही है. क्या हम इसे भी मान लें? हमारा सौभाग्य है कि ऐसी अधकचरी सोच के बावजूद हमें एक बेहतरीन संविधान मिला.
उस बहस में दो बेहतरीन वक्ताओं ने प्रतिबंध का विरोध किया था. अपने पहले संबोधन में कोल्हापुर के बीएच खारडेकर ने कहा था, ‘एक तर्क दिया गया है कि देश के सभी समुदाय प्रतिबंध चाहते हैं. इस सूची में पारसी और ईसाई शामिल कर लिये गये. श्रीमान! पारसियों और ईसाइयों को जितना मैं जानता हूं, उस आधार पर मेरा मानना है कि ये दोनों समुदाय इस प्रतिबंध के पक्ष में नहीं ही होंगे.’ उस बहस में बिहार के जयपाल सिंह ने प्रतिबंध का विरोध करते हुए कहा था कि देश के आदिवासी समुदाय परंपरागत तौर पर शराब बनाते रहे हैं और उसका सेवन करते चले आ रहे हैं.
शराब पर प्रतिबंध लगा कर हम इस देश के सबसे प्राचीन लोगों के धार्मिक अधिकारों में हस्तक्षेप कर रहे हैं.’ देखा जाये तो यही बात शैव हिंदुओं पर भी लागू होती है, जो लोग भांग, चरस आदि के तौर पर गांजे का प्रयोग करते हैं जो सांस्कृतिक मनोवृत्ति के कारण आपराधिक हो गया है.
इसमें कोई शक नहीं कि जैसे गुजरात में शराब पर प्रतिबंध असफल रहा है, वैसे ही बिहार में यह असफल होगा. शराबबंदी कानून के रूप में तो मौजूद रहेगी, पर पीनेवाले अपना जुगाड़ कर ही लेंगे, पुलिस का अपराधीकरण हो जायेगा और राज्य को उसके राजस्व का नुकसान होगा. इस प्रतिबंध से सबको नुकसान होगा, लेकिन लोहियावादियों को लगेगा कि उन्होंने एक अच्छा काम किया है.

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