मुकुल श्रीवास्तव
स्वतंत्र टिप्पणीकार
फिल्मी दुनिया समय के साथ काफी बदली है. कहानी बदली, संगीत बदला, फिल्म का प्रस्तुतिकरण और प्रमोशन बदला. हर चीज में बदलाव को नोटिस करनेवाली लोगों की पैनी नजर के सामने फिल्मों का खलनायक भी बदल गया.
यहां से पचास-पचास कोस दूर जब कोई बच्चा रोता है, कहनेवाला वाला गब्बर कब गांव के बीहड़ों से निकल कर शहर के उस इनसान जैसा हो गया कि उसको पहचानना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो गया. अरसे तक खलनायकों का चरित्र नायकों के बराबर का हुआ करता था. व्यवस्था से पीड़ित हो खलनायक बन जाना कुछ ही फिल्मों का कथ्य रहा है, पर एंग्री यंगमैन अमिताभ बच्चन के बाद खलनायक बस खलनायक ही होता था. वह क्यों गलत है, इसका उत्तर किसी भी फिल्म में नहीं मिलता.
नब्बे के दशक के बाद मानसिक रूप से बीमार या अपंग खलनायकों का दौर आया. ‘परिंदा’ में नाना पाटेकर, ‘डर’ में शाहरुख खान, ‘ओमकारा’ में सैफ अली खान, ‘दीवानगी’ में अजय देवगन और ‘कौन’ की उर्मिला ऐसे ही खलनायकों की श्रेणी में आते हैं.
जंगलों और बीहड़ों से निकल कर पांच सितारा संस्कृति का हिस्सा बने खलनायक मानो अपने वक्त की कहानी सुनाते हैं कि कैसे हमारे समाज में बदलाव आ रहे थे. गांव, खेत-खलिहान और जानवर फिल्मी परदे से गायब हो रहे थे और उनकी जगह कंक्रीट के जंगल सिनेमा के मायालोक का हिस्सा हो रहे थे. सांप्रदायिकता कैसे हमारे जीवन में जहर घोल रही है, इसका आंकलन भी हम फिल्में देख कर सहज ही लगा सकते हैं.सिनेमाई खलनायकों के कई ऐसे कालजयी चरित्र रहे हैं, जिनके बारे में सोचते ही हमें उनका नाम याद आ जाता है.
गब्बर, शाकाल, डॉन, मोगैम्बो, जगीरा जैसे कुछ ऐसे चरित्र हैं, जिनके नामों से उनकी सामाजिक, जातीय, धार्मिक पहचान स्पष्ट नहीं होती. लेकिन आज संसाधानों के असमान वितरण से परेशान खलनायक आते हैं. मुझे जीने दो, मदर इंडिया, पान सिंह तोमर जैसी फिल्में इसकी बानगी हैं. बाद में चल कर समाजवादी व्यवस्था ने हर चीज को सरकारी नियंत्रण में कर दिया, जिसका नतीजा तस्करी के रूप में निकला और खलनायक एक तस्कर हो गया. अमिताभ बच्चन का दौर कुछ ऐसी फिल्मों से भरा रहा, कालिया, दीवार, राम बलराम जैसी फिल्में उस दौर की हकीकत बता रही थीं. तस्करों ने पैसा कमा कर जब राजनीति को एक ढाल बनाना शुरू किया, तो इसकी प्रतिध्वनि फिल्मों में भी दिखाई पड़ी.
अर्जुन, आखिरी रास्ता और इंकलाब जैसी फिल्में समाज में हो रहे बदलाव को ही रेखांकित कर रही थीं. उदारीकरण ने नायक और खलनायक के अंतर को पाट दिया. एक इनसान एक वक्त में सही और गलत दोनों होने लगा, भौतिक प्रगति और वित्तीय लाभ में मूल्य और नैतिकता पीछे छूटती गयी और सारा जोर मुनाफे पर आ गया. फिल्म चरित्र में एक नया रंग उभरा जिसे ग्रे (स्लेटी) कहा जाने लगा.
इन सबके बीच खलनायकों की बोली भी बदल रही थी. सत्तर और अस्सी के दशक तक उनकी गाली की सीमा सुअर के बच्चों, कुत्ते के पिल्ले और हरामजादे तक ही सीमित रही. लेकिन अब भाषा के स्तर पर भी नायक और खलनायक का भेद मिट गया है.
बैंडिट क्वीन से शुरू हुआ गालियों का सफर गैंग्स ऑफ वासेपुर तक जारी है. जाहिर है गाली अब अछूत शब्द नहीं है. वास्तविकता दिखाने के नाम पर इनको स्वीकार्यता मिल रही है और सिनेमा को बीप ध्वनि के रूप में नया शब्द मिला है. रील लाइफ के खलनायकों की ये कहानी समाज के सच को समझने में कितनी मददगार हो सकती है, यह भी एक नयी कहानी है.