।। पुण्य प्रसून वाजपेयी।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
दिल्ली की नयी सरकार को लेकर एक सस्पेंस है. क्या वाकई दिल्ली की राजनीति पूरे देश को प्रभावित कर सकती है? इस सवाल का जवाब भविष्य के गर्भ में है, लेकिन कांग्रेस-भाजपा की शिकन और केजरीवाल की मासूम मुस्कुराहट सस्पेंस बढ़ा रही है. बिजली बिल में 50 फीसदी कमी और 700 लीटर पानी मुफ्त देने के वादे को पूरा करने या न करने पर दिल्ली सरकार का पहला सस्पेंस टिका है. आंकड़ों के लिहाज से परखें तो लगेगा कि यह सब्सिडी पर ही संभव है, पर कब तक? लेकिन यहीं से आम आदमी पार्टी की राजनीति के उस पाठ को भी पढ़ना जरूरी है, जो मौजूदा राजनीति के तौर-तरीकों के खिलाफ खड़ा हुआ है. दिल्लीवालों को अच्छा लगा कि कोई तो है जो उनके दरवाजे पर लगे परदे के भीतर, उनकी रसोई में झांक कर घर के अंदर के सच को समझ रहा है, कि क्यों सत्ता की नीतियों तले हर घर के भीतर लोगों का भरोसा राजनेताओं से डिग चुका है. पहली बार केजरीवाल ने आम आदमी के घर की बदहाली को राजनीतिक बिसात में जगह दी. इसलिए बिजली-पानी का सवाल दिल्ली में चुनावी जीत-हार तय करनेवाला हो गया, इससे किसी को इनकार नहीं है.
अब सवाल आगे है. इसे पूरा कैसे किया जायेगा? दिल्ली में किसी भी नौकरशाह या कांग्रेस-बीजेपी के कद्दावर-समझदार नेता से पूछें, तो जवाब होगा- असंभव. फिर वह मौजूदा व्यवस्था को समझायेगा. दिल्ली खुद 900 मेगावाट बिजली पैदा करती है, जबकि उसकी जरूरत छह हजार मेगावाट की है. बाकी बिजली वह निजी कंपनियों से खरीदती है. कुल 27 पावर प्लांट हैं. आधा दर्जन कंपनियों से भी करार है. सिंगरौली से लेकर सासन तक से बिजली लाइन दिल्ली के लिए बिछी है. हर निजी कंपनी से अलग-अलग करार है. प्रति यूनिट बिजली एक रुपये बीस पैसे से लेकर छह रुपये तक में खरीदी जा रही है. औसतन चार रुपये प्रति यूनिट बिजली पड़ती है. उसमें ट्रांसमिशन, लीकेज सरीखे बाकी खर्चे जोड़ें, तो पांच रुपये प्रति यूनिट बिजली पड़ती है. अब इसे आधी कीमत में केजरीवाल बिना सब्सिडी कैसे देंगे? इसी तरह 700 लीटर पानी मुफ्त देने का सवाल भी राजनेताओं के आंकड़ों और नौकरशाहों के गणित में दिल्ली सरकार के सस्पेंस को बढ़ा सकता है. लेकिन अब जरा यह सोचें कि जो हाशिये पर पड़े लोगों के घरों के बाहरी दरवाजों पर लगे परदे को उठा भीतर झांक कर सरोकार बनाने को ही राजनीति बना ले, उसके लिए क्या इन आंकड़ों का कोई महत्व है?
अगर मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही केजरीवाल 700 लीटर पानी मुफ्त देने का ऐलान कर देते हैं, तो क्या होगा? पानी की सप्लाई तो जारी रहेगी, पर 700 लीटर पानी का बिल माफ होगा. लुटियंस की दिल्ली, पांच सितारा होटल और दक्षिणी दिल्ली में रहनेवाले तीन फीसदी लोग (दिल्ली की आबादी की तुलना में) जितने पानी का उपभोग करते हैं, अगर उनमें से सिर्फ नौ फीसदी पानी की कटौती कर दी जाये या उनके बिल में 12 फीसदी का इजाफा कर दिया जाये, तो समूची दिल्ली को 700 लीटर पानी मुफ्त देने में केजरीवाल को परेशानी नहीं होनेवाली.
केजरीवाल यदि बिजली बिल में 50 फीसदी की कटौती का ऐलान भी कर देते हैं, तो क्या होगा? कुछ निजी कंपनियां सवाल उठा सकती हैं कि उनकी भरपाई कैसे होगी. फिर केजरीवाल अगर कंपनियों को कहते हैं कि या तो बिल कम करो या बस्ता बांधो, तो? कंपनियां केजरीवाल की बात मानेंगी, क्योंकि देश में बिजली की दरें किस आधार पर तय होती है, यह किसी को नहीं पता. फिर दिल्ली को सासन से बिजली 1.20 रुपये प्रति यूनिट मिलती है, पर सिंगरौली से 3.90 रुपये यूनिट. इतना अंतर क्यों, यह भी नहीं पता. ध्यान दें तो जबसे देश में बिजली निजी क्षेत्र को सौंपी गयी है और उसके बाद कोयला से लेकर पानी और जमीन से लेकर इन्फ्रास्ट्रक्चर तक निजी कंपनियों को जिस तरह सस्ते दामों में दिये गये, और बैंकों ने भी बिना तफ्तीश किये कम इंटरेस्ट पर बिजली कंपनियों को रुपये बांटे, वह अपने आप में एक घोटाला ही है. इस खेल में राजनीतिक दलों या राजनेताओं की अंटी में कैसे और कितना पैसा जा रहा है, जो चुनाव लड़ते वक्त निकलता है, यह भी छुपा नहीं है.
एनरॉन इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि कैसे उसने खाली हाथ सिर्फ प्रोजेक्ट रिपोर्ट के आधार पर अरबों रुपये लूटने की योजना के साथ भारत में कदम रखा था. एनरॉन के बाद देश की टॉप 22 कंपनियां बिजली उत्पादन से जुड़ीं. देश में सौ से ज्यादा पावर प्रोजेक्ट के लाइसेंस राजनेताओं के पास हैं, जिनमें कांग्रेस के राजनेता हैं तो भाजपा के भी, और सभी बेहद कद्दावर हैं. समझ सकते हैं कि बिजली उत्पादन से जुड़ कर, बिजली बेच कर मुनाफा कमाने के खेल में कितना लाभ है.
दिल्ली में केजरीवाल की रफ्तार सिर्फ बिजली या पानी तक रहेगी, ऐसा भी नहीं है. शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य और डीटीसी से लेकर मेट्रो तक में जो 72 हजार लोग कॉन्ट्रैक्ट पर काम कर रहे हैं, सभी को स्थायी भी किया जायेगा. जो झुग्गी-झोपड़ियां राजनीतिक वायदों तले अपने होने का एहसास करती थी, उन्हें मान्यता दी जायेगी. फिर जो पैसा दिल्ली के विकास या इन्फ्रास्ट्रर निर्माण के नाम पर नीतिगत फैसलों के तहत खर्च होता रहा है, वह मोहल्ला सभाओं के जरिये तय होगा तो बिचौलिये और माफिया एक झटके में साफ हो जाएंगे, जिनकी कमाई का आंकड़ा कमोवेश हर विभाग में एक से लेकर 20 हजार करोड़ तक का है.
जाहिर है, लूट की राजनीति से इतर केजरीवाल की सियासी बिसात जब दिल्ली में अपने मेनिफेस्टो को लागू कराने के लिए कॉरपोरेट घरानों और निजी कंपनियों पर दबाव बनायेगी, तब दिल्ली छोड़ कर बाकी देश में उनकी लूट में खलल न पड़े, इसके लिए वे समझौता कर लेंगी या फिर कांग्रेस व भाजपा के दरवाजे पर दस्तक देंगी कि सरकार गिराओ नहीं तो ‘लूट का इन्फ्रास्ट्रक्चर’ ही टूट जायेगा. सोचिए, इन हालात में अगर केजरीवाल की सरकार गिर जाती है, तो फिर अगले चुनाव में देश का आम आदमी क्या सोचेगा? जिस रास्ते केजरीवाल की सियासी बिसात बिछ रही है, उसमें कांग्रेस या भाजपा अब छोटे खिलाड़ी लगते हैं. एक वक्त के बाद तय कॉरपोरेट को ही करना है, जिन्होंने मनमोहन सरकार पर यह कह कर अंगुली उठायी कि गवर्नेंस फेल है और नरेंद्र मोदी के पीछे यह कह कर खड़ी हो गयीं कि गवर्नेस लौटेगी. इस सियासी दौड़ में किसी ने हाशिये पर पड़े 80 फीसदी लोगों के घरों में झांक कर नहीं देखा कि वहां की त्रसदी क्या है. आम आदमी का वह दर्द उम्मीद बन कर केजरीवाल के घोषणापत्र तले उभरा है. अब यह लड़ाई दीये और तूफान की है और तूफान पहली बार अपनी ही बिसात पर फंस गया है!