व्यालोक
स्वतंत्र टिप्पणीकार
रंगों का त्योहार ‘होली’ आया और चला भी गया. अब गर्द-ओ-गुबार का मौसम है. सड़कों पर अब भी कहीं-कहीं बिखेरे हुए रंग और गुलाल के निशान दिख रहे हैं, अपनी पुरानी कहानी कहते हुए. पेड़ों से पत्ते गिर रहे हैं और चैती धूप की चुनचुनाहट बढ़ गयी है. दोपहर उनींदी सी है और ऐसे में सड़क का सूनापन बढ़ता जा रहा है. ऐसी ही एक उदास और ऊंघती दोपहर में दरभंगा राज के किले के सिंहद्वार पर मैं खड़ा हूं.
किले की दीवार में एक पीपल के साथ कोई बनैला झंखाड़ भी उगा हुआ है. उसके पत्ते सूख गये हैं, हवा के झोंके से उड़ रहे हैं, मेरी आंखों के सामने हौले-हौले हिल रहे हैं.
यहीं वह भी बैठते हैं. सिंहद्वार के ठीक सामने. उनके आगे ही वह काला दरवाजा है, जो यूनिवर्सिटी और काली-मंदिर की ओर चला जाता है, जिसे प्रधानमंत्री मोदी के दरभंगा-आगमन पर उखाड़ दिया गया था और अब वह जैसे-तैसे लगा दिया गया है.
उनका नाम बैजनाथ है, वह फिलहाल जूते-चप्पल गांठते हैं, पॉलिश करते हैं, लेकिन उनका एक भरा-पूरा इतिहास है.
लेखक उनसे पॉलिश कराते हुए उनके इतिहास को थोड़ा कुरेदता भी है. एक जमाने में वह दरभंगा रेडियो स्टेशन के ‘सांग्स एंड ड्रामा डिवीजन’ प्रभाग में शहनाई-वादन का काम करते थे, अब कहते हैं कि वक्त की मार ने उन्हें यहां पहुंचा दिया और अब वह जूते-चप्पल गांठते हैं.
उन्हीं की बगल में चुक्की-मुक्की (दोनों पैरों के बल उकड़ूं) एक और सज्जन बैठे हैं. बैजनाथ जी परिचय कराते हुए बोलते हैं, ‘ये बालेश्वर जी हैं, ये भी शहनाई बजाते थे. भाग्य अच्छा था, सो ऑल इंडिया रेडियो में चले गये.’ हालांकि, वह भी स्थायी तौर पर नियुक्त नहीं हैं, बल्कि कैजुअल (अंशकालीन) आधार पर ही हैं. बैजनाथ ब्रश का एक हाथ लगाते हुए दूर कहीं देखते हुए अपने पुराने दिनों को याद करते हैं, ‘वह टैम ही कुछ और था बाबू. तब लोग सुननेवाले थे, लोग कला के बहुत कद्रदान हुआ करते थे. हमारी पूरी टीम बाहर भी जाती थी, रांची से लोग कार्यक्रम लेकर आते थे. अब तो कहीं कुछ नहीं है.’
बालेश्वर टीप देते हुए कहते हैं, ‘अब कहीं कुछ नहीं है, हो भाई. कुल मिला कर दरभंगा केंद्र में सिर्फ तीन-चार लोग ही हैं, बस खानापूरी हो रही है.’
मैं बैजनाथ और बालेश्वर दोनों से जानना चाहता हूं कि क्या एफएम के आने से भी कोई फर्क पड़ा है. वे दोनों ही इस पर मौन रह जाना ही श्रेयस्कर समझते हैं. कुछ अन्यमनस्क भाव से बैजनाथ कहते हैं कि ‘किसी के आने-जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता है. फिल्मी गाने तो हमेशा से थे, लेकिन उसके साथ ही हमारे जैसों की भी पूछ होती ही थी. लोग-बाग अनेक अवसरों पर हमें ही सुनना पसंद करते थे. अब तो, ‘कैसी चली है, अबके हवा तेरे शहर में…’ वाला हाल हो गया है.’
पॉलिश का काम खत्म हो चुका है. जूता अब चमक रहा है. हालांकि, बैजनाथ और बालेश्वर के चेहरे पर चमक नहीं है, वहां अब उम्मीद भी नहीं है. कुछ है, तो बस डूबते हुए सूरज का सा सौंदर्य. चलते-चलते बालेश्वर कहते हैं, ‘हमारे मिथिला में कलाकारों की कमी नहीं बाबू, कद्र करनेवालों की कमी है.’
उनकी बात मानो ‘तीर-ए-नीमकश’ बन कर मेरे कलेजे में धंस सी जाती है. बेटी की शादी के अगले दिन जिस तरह का खालीपन घर में पसरा होता है, कुछ वैसे ही मेरा भी मन रीत सा जाता है…