-उर्मिलेश –
वरिष्ठ टीवी पत्रकार
अपना वजूद कायम रखने के लिए कांग्रेस तदर्थवाद और तात्कालिकतावाद का शिकार है. अब येन-केन प्रकारेण लोकसभा चुनाव में अपनी ‘शर्मनाक पराजय’ को ‘सम्मानजनक पराजय’ में तब्दील करने के लिए ‘कारगर खुरपेच’ तलाशे जा रहे हैं.
हाल के चुनावी-नतीजों के बाद कांग्रेस अध्यक्ष और उपाध्यक्ष ने प्रेस से मुखातिब होकर एक स्वर में कहा कि वे इस हार से सबक लेंगे. जनता की आकांक्षाओं पर अगर हम खरे नहीं उतरे, तो इसकी समीक्षा होगी. पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने तो यहां तक कहा कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सफलता से सीखने की जरूरत है.
सवा सौ साल से भी ज्यादा वर्षो की पार्टी ने महज सवा साल की पार्टी से सीखने की बात करके राजनीतिक विनम्रता का परिचय दिया. पर शायद कांग्रेस को मालूम ही नहीं कि उसे ‘आप’ से क्या सीखने की जरूरत है? बड़ा सच यह है कि जनता से उसका अलगाव स्थायी सा होता जा रहा है.
ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है, क्या कांग्रेस किसी से सीखने या किसी घटनाक्रम से सबक लेने में यकीन करती है? पार्टी में हाल के फैसलों और नेतृत्व के तौर-तरीकों से ऐसा हरगिज नहीं लगता.
‘आप’ बड़े बदलाव की विचारधारा से प्रेरित कोई क्रांतिकारी पार्टी नहीं है. पर उसकी कामयाबी इस बात में निहित है कि दिल्ली की जनता का उसने दिल जीता, लोगों की बड़ी आबादी ने उस पर भरोसा किया. महंगाई और भ्रष्टाचार से बेहाल आम लोगों को महसूस हुआ कि दिल्ली में इस पार्टी के नेता दूसरी बड़ी पार्टियों के ज्यादातर नेताओं से अलग हैं. वे अरबपति नहीं हैं, कॉरपोरेट के पैरोकार नहीं हैं, पेज-थ्री वाले नहीं हैं, बड़ी गाड़ियों-बड़ी कोठियों वाले नहीं हैं, प्रॉपर्टी डीलर और दलाल नहीं हैं.
बल्कि वे ही शायद उनके दुख-सुख में शामिल हो सकते हैं. इसी एहसास के चलते लोगों ने कांग्रेस को पूरी तरह खारिज किया और भाजपा को सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं दिया. केजरीवाल की ‘आप’ का 28 सीटों का आंकड़ा कोई मामूली बात नहीं है, लेकिन कांग्रेस ने इससे क्या सबक लिया?
कांग्रेस आलाकमान ने बीते शनिवार केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन से इस्तीफा ले लिया. उनसे देश का कॉरपोरेट नाराज था. वह चाहते थे कि उन्हें मुनाफे के लिए पर्यावरण-संरक्षण के सरोकारों की धज्जियां उड़ाने की पूरी मनमानी हो. इसी के चलते एक समय जयराम रमेश का मंत्रालय बदला गया था. जयंती कोई बदलाववादी सोच की नेता नहीं हैं.
पर उन्होंने कॉरपोरेट के लिए ‘लाल कालीन’ बिछाने में शायद लापरवाही की. इसकी ‘सजा’ उनको उस दिन दी गयी, जिस दिन तुगलक लेन के बंगले में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के फिक्की में दिये जानेवाले भाषण का प्रारूप तैयार किया जा रहा था. बेचारी जयंती अब पार्टी के लिए काम करेंगी.
वह स्वयं कहती फिर रही हैं कि उन्हें हटाया नहीं गया है, उन्होंने अपने मन से इस्तीफा दिया, ताकि वह पार्टी के लिए काम कर सकें. क्या काम करेंगी? पार्टी-संगठन के स्तर पर कांग्रेस में क्या काम होते हैं? बीते कुछ वर्षो के दौरान क्या कांग्रेस के नेताओं को किसानों-मजदूरों की लड़ाई में हिस्सा लेते देखा गया है, क्या उन्हें दलितों-आदिवासियों के मामले में कोई खास पहल करते सुना जाता है, क्या उन्हें महिलाओं और अन्य उपेक्षित वर्गो को न्याय दिलाने के लिए कुछ नयी पहल करते कभी देखा गया है? वे राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के कहने पर कुछ विधेयक जरूर पारित कराते हैं, पर इन कानूनों से कितना कुछ बदलता है? उनका क्रियान्वयन कितना हो पाता है?
कहा जा रहा है कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए राहुल गांधी ने ही मनमोहन सिंह सरकार पर लोकपाल के नये प्रारूप को कानूनी-जामा पहनाने के लिए मजबूर किया. लेकिन अभी दो दिन पहले मुंबई के आदर्श सोसायटी घोटाले की जांच रिपोर्ट को किसके दबाव में महाराष्ट्र की पृथ्वीराज चव्हाण सरकार ने नामंजूर किया? अशोक चव्हाण जैसे चार-चार पूर्व मुख्यमंत्रियों और कुछ बड़े नौकरशाहों को बचाने के लिए वैधानिक ढंग से गठित आयोग की रिपोर्ट रद्दी की टोकरी में डाल दी गयी. क्या कांग्रेस और राहुल गांधी के पास इसके बचाव में कोई दलील है?
सच तो यह है कि किसी न किसी तरह अपना वजूद कायम रखने के लिए सोनिया और राहुल की कांग्रेस तदर्थवाद और तात्कालिकतावाद का शिकार है. अब येनकेन प्रकारेण लोकसभा चुनाव में अपनी शर्मनाक पराजय को ‘सम्मानजनक पराजय’ में तब्दील करने के लिए ‘कारगर खुरपेंच’ तलाशे जा रहे हैं.
अभी हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा और यूपीए के घटक और केंद्रीय मंत्री अजित सिंह के दबाव में आकर जाटों के आरक्षण के लिए मंत्रिमंडल से हरी झंडी दिलायी गयी. यह फैसला ओबीसी-आरक्षण के संवैधानिक प्रावधानों के बिल्कुल खिलाफ है, जिसमें सिर्फ शैक्षिक-सामाजिक पिछड़ेपन को आरक्षण का आधार माना गया है. दिलचस्प है कि यूपीए-1 के साझा कार्यक्रम (सीएमपी) के समय से ही निजी क्षेत्र में दलित-आदिवासी आरक्षण के लिए कोशिश करने का वायदा सरकार के एजेंडे में शामिल रहा है. सरकार के दस साल बीतनेवाले हैं, पर उसने इस मुद्दे को छुआ तक नहीं.
कांग्रेस उपाध्यक्ष के राजनीतिक सलाहकारों की वैचारिक दरिद्रता का आलम यह है कि बड़ी चुनावी हार के बावजूद यूपीए सरकार ताबड़तोड़ जनविरोधी फैसले करती जा रही है. तेल-गैस के दाम बढ़ाने के प्रस्ताव को हाल ही में उसने हरी झंडी दी. अपने चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा न होने के बावजूद कांग्रेस ने बीते दिनों मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआइ के फैसले को राष्ट्रीय बहस में लाया और कुछेक सहयोगी दलों की असहमति के बावजूद उसे लागू करने का फैसला किया.
इससे दिल्ली के छोटे-मझोले दुकानदारों और अन्य लोगों का उसने भरोसा खोया. इस तरह के कुछ और फैसले पाइपलाइन में बताये जाते हैं. राहुल गांधी और उनके सलाहकारों ने बीते सप्ताह अपना ज्यादा वक्त कॉरपोरेट को खुश करने में खर्च किया. इस दरम्यान वे उस जनता को भूल गये, जिसने अभी कुछ दिन पहले दिल्ली के मैदान में उन्हें धूल चटायी थी.
कोई भी पूछ सकता है कि हमारे अर्थशास्त्री-प्रधानमंत्री ने बीते पौने दस सालों में कुपोषण, स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास और कृषि-विकास के क्षेत्र में क्या कुछ किया? आंकड़ों की बाजीगरी से बचते हुए यहां सिर्फ यह बता दें कि पांच साल या उससे कम उम्र के बच्चों के कुपोषण के मामले में भारत का रिकॉर्ड सब-सहारन देशों से भी गया-गुजरा है. वहां 25 फीसदी बच्चे कुपोषणग्रस्त हैं और अपने यहां 42 फीसदी. यह आंकड़े प्रामाणिक वैश्विक संगठनों की तरफ से आये हैं.
स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार जैसे सामाजिक विकास के बुनियादी क्षेत्रों में यूपीए का रिकॉर्ड बेहद खराब है. लेकिन राहुल की कांग्रेस इन चुनौतियों से जूझने का साहस कहां दिखा पा रही है?