पवन के वर्मा
सांसद एवं पूर्व प्रशासक
राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग द्वारा निजी क्षेत्र में पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसदी आरक्षण की सिफारिश पर आपत्ति पूर्वानुमानित थी. मैं ‘पूर्वानुमानित’ इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि सामाजिक न्याय के उद्देश्य को आगे ले जानेवाले किसी भी प्रस्ताव के विरोध में उन लोगों की तरफ से अपेक्षित शोर उठाया जाता है, जो यह मानते हैं कि आर्थिक विकास का लाभार्थी होने का पवित्र अधिकार सिर्फ उन्हें ही है.
तथ्य यह है कि स्वतंत्रता के 69 वर्ष बाद भी भारत में दुनिया के सर्वाधिक गरीब, अशिक्षित और कुपोषित लोगों का बसेरा है. इसके अलावा, पिछले कुछ दशकों में बड़े पैमाने पर सशक्तीकरण- राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक दोनों- के बावजूद हमारे देश की अधिकांश आबादी, जिसमें दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के लोग शामिल हैं, के पास अब भी अवसरों के संदर्भ में बराबरी हासिल नहीं हुई है.
क्या देश का एक हिस्सा आगे बढ़ सकता है और दूसरा भाग लगातार पिछड़ता रह सकता है? देश जैविक रूप से एक पूर्ण इकाई है. इसके सभी हिस्से परस्पर जुड़े हुए हैं और आर्थिक विकास का लाभ सभी को समान रूप से मिलना चाहिए. सफल लोग चाह कर भी अपने गणराज्य से अलग नहीं हो सकते.
हमें एक ही साथ डूबना और पार जाना है. इसी कारण हमारे दूरदर्शी राष्ट्र-निर्माताओं ने संविधान लिखा था, जिसमें उन्होंने सकारात्मक कार्यवाही के तौर पर अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण को शामिल किया था. बाद में, इस आरक्षण में अन्य पिछड़ा वर्गों को भी शामिल किया गया और सर्वोच्च न्यायालय ने इसके साथ एक शर्त लगा दी कि कुल उपलब्ध नौकरियों में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से अधिक नहीं होगी.
आरक्षण के ये प्रावधान सरकारी नौकरियों तक सीमित थे. लेकिन 1991 में हमारी अर्थव्यवस्था में खुलापन आने के बाद सरकारी नौकरियों की संख्या घटने लगी. वर्ष 2006 से 2012 के बीच इनकी संख्या 3.3 फीसदी कम होकर 18.2 मिलियन से घट कर 17.6 मिलियन हो गयी.
इसी अवधि में निजी क्षेत्रों में नौकरियों की संख्या 35.7 फीसदी बढ़ कर 8.7 मिलियन से 11.9 मिलियन हो गयी. दूसरे शब्दों में, अगर हम यह स्वीकार करते हैं कि सामाजिक न्याय हमारे संविधान का एक संकल्प है, तो सरकारी नौकरियों में इसे लागू करने के अवसर सिमटते गये, जबकि कॉरपोरेट सेक्टर में इनमें भारी बढ़ोतरी हुई.
क्या कॉरपोरेट सेक्टर, जिसके प्रति मेरा बहुत सम्मान है, से यह कहना अनुचित है कि वह सामाजिक न्याय की प्रक्रिया को आगे ले जाने में सरकार का सहयोगी बने? मेरा मानना है कि नहीं, क्योंकि मुझे भरोसा है कि दीर्घावधि में यह कॉरपोरेट सेक्टर के हित में ही होगा. कुछ कॉरपोरेट घरानों ने, दुर्भाग्य से उनकी संख्या गिनी-चुनी ही है, मुनाफा अर्जित करने के साथ वंचितों और हाशिये के लोगों के लिए कल्याणकारी योजनाओं में भी निवेश किया है. उन्होंने इस बात को समझा है कि ऐसी गतिविधियों से वे अपने बाजार का आकार बढ़ा रहे हैं और उस क्षेत्र का विस्तार कर रहे हैं जहां से प्रतिभाओं की नियुक्ति की जा सकती है.
दरअसल 2004 में कॉरपोरेट सेक्टर ने स्पष्ट भरोसा दिलाया था कि वे सकारात्मक कार्यवाही के कार्यक्रम स्वैच्छिक रूप से लागू करेंगे. तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को 218 शीर्ष कॉरपोरेट घरानों और उनके संगठनों ने पत्र लिख कर कहा था कि हम ‘स्कॉलरशिप, कंपनी द्वारा संचालित निजी स्कूल, व्यावसायिक प्रशिक्षण से संबंधित वंचित लोगों के लिए चलाये जा रहे अपने मौजूदा गतिविधियों का विस्तार करेंगे… और सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े लोगों को सशक्त करने के लिए हम सिद्धांत और व्यवहार में सकारात्मक कार्यवाही का कार्यक्रम लागू करेंगे.’
तब से एक दशक से अधिक समय बीत चुका है, लेकिन क्या कॉरपोरेट सेक्टर ईमानदारी से कह सकता है कि उसने पूरी तरह से, या उचित तौर पर, अपने संकल्प को लागू किया है? कोई भी निष्पक्ष सर्वेक्षण यह दिखा सकता है कि बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध 500 शीर्ष कंपनियों के वरिष्ठ प्रबंधन में आज भी गिने-चुने दलित, आदिवासी और पिछड़े हैं.
अपनी तमाम उद्यमी ऊर्जा के बावजूद कॉरपोरेट सेक्टर अपने-आप में एक द्वीप की तरह नहीं रह सकता है. अगर सभी नहीं, तो बहुत-से निजी कंपनियों ने भिन्न रूपों में सरकार की अनुकूल नीतियों का लाभ उठाया है. पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने भी व्यंग्यात्मक लहजे में कहा है कि जब सरकार वंचितों के पक्ष में वित्तीय हस्तक्षेप करती है, तो उसे ‘अनुदान’ (सब्सिडी) कहा जाता है, लेकिन जब वही सहयोग कॉरपोरेट को दिया जाता है, तो उसे ‘प्रोत्साहन’ (इंसेटिव) कहा जाता है. यदि निजी क्षेत्र सरकार की मदद से फला-फूला है- और यह मदद वैध है- तो फिर उसे सामाजिक समावेशीकरण के लक्ष्यों में मदद क्यों नहीं करना चाहिए, जो कि हमारे संविधान का स्पष्ट उद्देश्य है?
यह तर्क कि सकारात्मक कार्यवाही से मेधा पर असर पड़ सकता है, एक आभिजात्य भ्रांति है. वास्तव में, हकीकत इसके उलट है. यदि अधिक लोगों को राष्ट्रीय मुख्यधारा में पूर्ण सहभागिता के लिए अवसर और अनुभव दिया जायेगा, तो हम अपने प्रतिभा-संकुल को बढ़ायेंगे, साथ ही बेहतर के चयन के लिए प्रतिस्पर्द्धा की संभावना का भी विस्तार होगा. यह कहना कि जो सदियों के सामाजिक उपकार के लाभार्थी रहे हैं, उन्हें अवसरों पर एकाधिकार रखने अधिकार है, बेतुका आभिजात्य का बेहद खराब रूप है.
संविधान स्पष्ट रूप से ‘सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ों’ के लिए सकारात्मक कार्यवाही का उल्लेख करता है, क्योंकि हमारी दमनकारी श्रेणीबद्ध जाति व्यवस्था में कुछ जातियां हजारों सालों से सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पीछे रखी गयी हैं. पहले से ही विशेषाधिकार-प्राप्त लोगों के पास अतिरिक्त मस्तिष्क नहीं है जो उन्हें स्वाभाविक रूप से श्रेष्ठतर बनाये. और, कोई भी लोकतंत्र सही मायनों में तब तक प्रभावी नहीं हो सकता है, जब तक वह अपने सभी नागरिकों को बराबरी के अवसर नहीं प्रदान कर देता.
अभी राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने सिर्फ सिफारिश ही की है. इसे आगे ले जाने के लिए संसद को इस पर विचार करना होगा. मेरी सलाह है कि इस बीच हमारे गतिशील कॉरपोरेट सेक्टर के प्रमुख लोग इस मसले पर आत्मचिंतन करें. बारह वर्ष पहले प्रधानमंत्री को लिखे पत्र के वादे के अनुरूप यदि वे सकारात्मक कार्यवाही के लिए एक ठोस और सत्यापन-योग्य कार्यक्रम स्वैच्छिक रूप से स्वीकार कर लेते हैं, तो यह बेहतरीन स्थिति होगी.
सरकार और हमारे निजी क्षेत्र को देश को अधिक न्यायसंगत और समतावादी इकाई बनाने की महान परियोजना में सहभागी बनना चाहिए. सामाजिक न्याय के साथ आर्थिक विकास न सिर्फ सरकार का, बल्कि व्यापार एवं उद्योग जगत के नेतृत्व का भी लक्ष्य होना चाहिए.