विचारधारा कोई भी हो, उसे जुड़ने-बंधने के कुछ फायदे हैं, तो कुछ खतरे भी. विचारधारा या वाद-विशेष से एक जीवन-दृष्टि मिलती है. जीवन-जगत की व्याख्या संभव हो पाता है. लेकिन, विचारधारा विशेष से जुड़ने से पहले उसके खतरों को भी तोल लेना चाहिए. किसी विचारधारा से बंधना वहीं तक उचित है, जहां तक वह आपको अपना बंधुआ न बनाये. बंधुआ बन कर गुलामी तो हो सकती है, विचार जैसा कठिन कर्म कर पाना स्वतंत्र स्थिति में ही संभव है.
विचारधाराओं के साथ कालक्रम में यह होता रहा है कि उनसे ‘विचार’ बाहर कर दिये जाते हैं, सिर्फ ‘धारा’ रह जाती है. यह धारा अपने वेग में आपको बहा ले जाती है और विचार के कूल-किनारे पीछे छूटते चले जाते हैं. देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय जेएनयू में इन दिनों यही होता दिख रहा है.
कई हजार छात्रों वाले इस केंद्रीय विश्वविद्यालय में दक्षिणपंथी और वामपंथी रुझान की विचारधाराओं को माननेवाले छात्र भी हैं. जेएनयू का सांस्कृतिक परिवेश मानता रहा है कि विचारों पर बंदिश नहीं होनी चाहिए. इसी कारण जेएनयू कैंपस में परस्पर विरोधी विचारों की अभिव्यक्ति के लिए जगह कभी कम नहीं पड़ी.
लेकिन, बीते दो दिनों के घटनाक्रम में अभिव्यक्ति के इस आजाद कैंपस को बंद करने का प्रयास हो रहा है. यहां पढ़नेवाले कई हजार छात्रों में से दस-बीस ने फांसी की सजा प्राप्त एक आतंकी की बरसी पर कश्मीर की आजादी के पक्ष में नारे लगाये. कहा ये भी जा रहा है कि छात्रों के इस छोटे से समूह के कुछ नारे भारत-विरोधी भी थे. निश्चित रूप से कश्मीर की आजादी के पक्ष में या भारत के विरोध में नारे लगानेवाले छात्र भूल गये कि उनका यह कृत्य किसी विचारधारा विशेष के अतिवाद से ग्रसित है, जिसमें विचार की बजाय उन्मादी धारा का आवेग भरा है. ऐसे आवेग पर अंकुश लगनी ही चाहिए.
लेकिन, इसके प्रतिकार में हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि दस-बीस छात्रों की नारेबाजी को पूरे जेएनयू समुदाय का प्रतिनिधि नारा नहीं कहा जा सकता. लेकिन, दुर्भाग्य से बीते दो दिनों से सोशल मीडिया, ह्वाट्सएप्प और कुछेक टीवी चैनलों पर हो यही रहा है. कुछेक छात्रों के अविवेकी नारे को पूरे जेएनयू समुदाय का नारा बता कर न केवल विश्वविद्यालय की गरिमा धूमिल करने की कोशिश हो रही है, बल्कि उसे बंद करने तक की दलील दी जा रही है.
गौर से परखें, तो ऐसी दलीलों में भी ‘विचार’ कम और राष्ट्रप्रेम के नाम पर बहायी जा रही उन्मादी धारा का बहाव ज्यादा है. उन्माद की यही विशेषता है- उसमें चिंतन के लिए जरूरी अवलोकन स्थगित हो जाता है. यह भूल कर कि दुनिया तो रोज बनती और बदलती है, किसी ठहरे हुए ‘वाद’ के उन्मादी बहाव में ही दुनिया की व्याख्या शुरू हो जाती है.
और किसी विचारधारा का बंधुआ बनने के ही कारण ही सोशल मीडिया से लेकर टीवी चैनल तक पर कुछ लोगों का यह कहना संभव हो पा रहा है कि जेएनयू राष्ट्रविरोध का अड्डा बनने के कारण बंद किये जाने का मुस्तहक है, वरना ऐसे लोग देखते कि इस मामले में जेएनयू प्रशासन का पक्ष क्या है. बीती 9 फरवरी की घटना के बारे में जेएनयू प्रशासन ने आधिकारिक रूप से कहा है कि एक समुदाय के रूप में हम विश्वविद्यालय परिसर में बहस-मुबाहिसे के मुक्तभाव से चलने के पक्षधर तो हैं, लेकिन ऐसी किसी भी गतिविधि की निंदा करते हैं जो विश्वविद्यालय को देश के संविधान और कानून के विरुद्ध एक मंच की तरह बरते.
विश्वविद्यालय प्रशासन के इस स्पष्ट रुख के बावजूद अगर पूरे जेएनयू समुदाय को राष्ट्रविरोधी करार दिया जा रहा है या फिर पुलिसिया कार्रवाई में किसी विचारधारा से जुड़े छात्र नेताओं को निशाना बनाया जा रहा है, तो इसके लिए किसी खूंटे से बंधी सोच के दायरे में रह कर फैसला लेने की प्रवृत्ति को ही दोष देना चाहिए.
ऐसी बंधी हुई सोच चाहे किसी धारा के संगठन की ओर से निकले या फिर किसी धर्मपुस्तक से, हमेशा यह थोपना चाहती है कि सबको एक ही तरह से सोचना चाहिए, सबको एक ही तरह से खाना या रहना चाहिए. इस तरह यह आपको वक्त से पीछे ले जाना चाहती है, मानवता के विकास को पलटने की कोशिश करती है.
और गौर करें तो यह प्रवृत्ति सिर्फ जेएनयू तक ही सीमित नहीं है. हाल में अलग-अलग घटनाओं की आड़ में देश के कई विश्वविद्यालयों को बदनाम करने की सक्रिय कोशिशें हुईं हैं, वहां विरोधी विचारों पर अंकुश लगाने के लिए प्रपंच रचे गये हैं.
हमें नहीं भूलना चाहिए कि देश के उच्च शिक्षा केंद्रों में हर तरह के विचारों की आजादी और तर्क-वितर्क को बढ़ावा देकर ही हम ऐसे विचारक, साहित्यकार, अर्थशास्त्री या वैज्ञानिक पैदा कर सकते हैं, जो देश को आगे ले जाने की राह दिखा सकें. अभिव्यक्ति की आजादी को रोकने का प्रयास, चाहे जिस किसी संगठन या विचारधारा की तरफ से हो, देश हित में कतई नहीं है. ऐसी कोशिशों पर सरकार और समाज को मूकदर्शक नहीं रहना चाहिए.