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नेतृत्व की पहचान का वक्त

।।विश्वनाथ सचदेव।।(वरिष्ठ पत्रकार)व्याकरण में नेतागीरी शब्द को भले ही विशेषण अथवा क्रियापद के रूप में समझा जाता हो, पर हमारे देश में अब इस शब्द का प्रयोग एक अपशब्द के रूप में हो रहा है. एक दौर था जब नेताजी शब्द सुनते-बोलते ही महान सेनानी सुभाष चंद्र बोस का चित्र आंखों के सामने आ जाता […]

।।विश्वनाथ सचदेव।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
व्याकरण में नेतागीरी शब्द को भले ही विशेषण अथवा क्रियापद के रूप में समझा जाता हो, पर हमारे देश में अब इस शब्द का प्रयोग एक अपशब्द के रूप में हो रहा है. एक दौर था जब नेताजी शब्द सुनते-बोलते ही महान सेनानी सुभाष चंद्र बोस का चित्र आंखों के सामने आ जाता था, अब तो न जाने कितने सारे स्वयंभू नेताजी पैदा हो गये हैं, जो अपशब्दवाली नेतागीरी के पर्याय लगने लगे हैं.

पिछले 50 वर्षो में नेता शब्द का ही नहीं, नेतृत्व के अर्थ का भी लगातार पतन हुआ है. कभी कृतित्व के बल पर लोग नेता बना करते थे. तपस्या, त्याग, साधना, चारित्रिक शुचिता और स्वयं उदाहरण बन कर प्रेरित करने की क्षमता के आधार पर नेतृत्व करने का अधिकार अजिर्त किया जाता था. अब यह अधिकार खरीदा जाता है- कभी धनबल से, तो कभी बाहुबल से. हालांकि इसके अपवाद हो सकते हैं.

सच बात तो यह है कि अधिसंख्य स्वघोषित नेताओं को नेता मानना ही नहीं चाहिए. हम अपना प्रतिनिधि चुनते हैं, लेकिन चुनाव जीतने के बाद वे स्वयं को नेता मानने लगते हैं. यह भी कि वे जो कहते-करते हैं, सब सही है. चुनाव बाहुबलियों को भी नेता कहलाने का अवसर दे देता है. चुनाव किसी योग्यता के बल पर नहीं जीते जाते, बल्कि कई और कारण होते हैं. जो इस ‘और कारण’ को साध लेता है, वह नेता कहलाने का अधिकारी हो जाता है. वोट खरीदने से लेकर वोट हथियाने के किस्सों से हमारा चुनावी-इतिहास भरा पड़ा है. कानूनन भले ही यह सब गलत हो, पर व्यवहार में यही सही है. इसी के चलते हमारी विधानसभाओं और संसद में आपराधिक छविवाले नेता नजर आते हैं.

सवाल यह है कि नेता जैसे हैं, वैसे हैं, लेकिन जनता ने उन्हें स्वीकार क्यों किया? क्या मजबूरी है कि जनता चुनावों में ऐसे नेताओं को जीतने का अवसर देती है? हम अपना वोट बेचते क्यों हैं? जाति-धर्म के नाम पर वे हमें बहकाते हैं, तो हम बहकते क्यों हैं? इन तमाम सवालों के जवाब कोई दूसरा नहीं देगा, हमें खुद ही खोजने होंगे.

कुछ ही दिन पहले महाराष्ट्र के एक वरिष्ठ कहे जानेवाले नेता ने किसानों का मजाक उड़ाया था. विरोध हुआ तो उन्होंने प्रायश्चित का नाटक भी किया. लेकिन जब वे किसानों की हंसी उड़ा रहे थे तो सामने बैठे श्रोता हंस क्यों रहे थे? हो सकता है कि सारे श्रोता नेता जी के गुर्गे रहे हों या डर रहे हों. लेकिन ये कारण उनकी चुप्पी को जायज नहीं ठहरा सकते. ऐसे में अगर नेता जी का आचरण आपराधिक था, तो श्रोताओं की चुप्पी भी बड़ी आपराधिक थी. कोई नेता कुछ भी कहता है और हम मान लेते हैं. क्यों?

हो सकता है कि इसके पीछे कहीं हमारी मूर्ति-पूजा वाली मानसिकता हो. इस मानसिकता के चलते हम अपने कथित नेतृत्व का सही-गलत स्वीकार कर लेते हैं. जनतांत्रिक मूल्यों-मर्यादाओं का तकाजा है कि नेतृत्व को हमेशा औचित्य की कसौटी पर कसा जाये. यदि नेतृत्व गलती करे तो उसे उसका एहसास दिलाया जाये. ‘मैं यह नहीं कहना चाहता था, मेरा यह मतलब नहीं था, मेरी बात को संदर्भ से काट कर देखा गया है’, जैसे वाक्य चौबीसों घंटे मीडिया के इस युग में कोई अर्थ नहीं रखते. अर्थ सिर्फ यह बात रखती है कि हमारा कथित नेतृत्व हमें अपनी जेब में समझता है.

उसका समझना सही है, क्योंकि आज तक किसी भी नेता को उसके अपराध के लिए जनता ने दंडित नहीं किया है. नेता ने कहा, बड़ा पेड़ गिरता है तो जमीन थोड़ी हिलेगी ही, और हमने मान लिया. लेकिन क्यों? अपने नेतृत्व से हम क्यों नहीं पूछते कि आखिर उसके बीमार सोच को हम क्यों ढोते रहें? कि अपना साध्य पाने के लिए हर साधन उसे पवित्र क्यों लगता है? कि वह क्यों मान कर चल रहा है कि जनता उसे माफ कर देगी?

नहीं, किसी भी जागरूक समाज में, जनतांत्रिक व्यवस्था में नेतृत्व को ऐसा कुछ मानने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए. और जनता का भी कर्तव्य है कि वह अपनी आंखें खुली रखे. सतत जागरूकता जनतंत्र की पहली शर्त है और इसका तकाजा है कि हम बौने नेतृत्व को नकारने का साहस पैदा करें. सच तो यह है कि जनतंत्र में जनता को वैसा ही नेतृत्व मिलता है, जिसके वह लायक होती है. इसलिए हमें ऊंचे मानदंड निर्धारित करने होंगे- अपने लिए भी और अपने नेतृत्व के लिए भी. आज समाज में जो संवेदनहीनता फैल रही है, वह व्यवस्था के सड़ने का संकेत है. यह ऐसा समय है कि हमें अपने अच्छे नेतृत्व को पहचानने की कोशिश करनी होगी. यह चुनौती है एक जागरूक राष्ट्र के लिए.

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