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संघ-सरकार के बीच अमित शाह

पुण्य प्रसून वाजपेयी वरिष्ठ पत्रकार जो श-हंगामा, खामोशी-सन्नाटा और उम्मीद. दिल्ली के 11 अशोक रोड पर मौजूद बीजेपी हेडक्वार्टर का यह ऐसा रंग है, जो बीते दो बरस से भी कम वक्त में कुछ इस तरह बदलता हुआ नजर आया, जिसने मोदी की चमक तले अमित शाह की ताकत देखी, तो जोश-हंगामा दिखा. फिर, सरकार […]

पुण्य प्रसून वाजपेयी
वरिष्ठ पत्रकार
जो श-हंगामा, खामोशी-सन्नाटा और उम्मीद. दिल्ली के 11 अशोक रोड पर मौजूद बीजेपी हेडक्वार्टर का यह ऐसा रंग है, जो बीते दो बरस से भी कम वक्त में कुछ इस तरह बदलता हुआ नजर आया, जिसने मोदी की चमक तले अमित शाह की ताकत देखी, तो जोश-हंगामा दिखा.
फिर, सरकार की धुमिल होती चमक तले अमित शाह की अग्निपरीक्षा के वक्त खामोशी और सन्नाटा देखा. और अब एक उम्मीद के आसरे फिर से अमित शाह को ही प्रधानमंत्री मोदी का सबसे भरोसेमंद-जरूरतमंद अध्यक्ष के तौर पर नया कार्यकाल मिलते देखा. तो क्या सबसे बड़ी सफलता से जो उड़ान बीजेपी को भरनी चाहिए थी, वह अमित शाह के दौर में जमीन पर आते-आते फिर बीजेपी को उड़ान देने की उम्मीद में बीजेपी की लगाम उसी जोड़ी के हवाले कर दी गयी है, जिसके आसरे बीजेपी ने 2014 में इतिहास रचा था?
जीत के दौर में चुनावी जीत को ही अमित शाह ने अपनी पहचान बनायी. और हार के दौर में किस पहचान के साथ अगले तीन बरस तक अमित शाह बीजेपी को हांकेंगे, यह बड़ा सवाल है. क्योंकि, अगले तीन बरस तक मोदी का मुखौटा पहन कर ना तो बीजेपी को हांका जा सकता है और ना ही मुखौटे को ढाल बना कर निशाने पर आने से बचा जा सकता है.
असल परीक्षा अमित शाह की अब शुरू हो रही है, जहां संगठन को मथना है. कार्यकर्ताओं को उनकी ताकत का एहसास करना है. क्षेत्रीय नेताओं को उभारना है, स्वयंसेवकों में आस भी जगानी है और अनुभवी प्रचारकों को उम्र के लिहाज से खारिज भी नहीं करना है. और मोदी की ताकत का इस्तेमाल करने की जगह मोदी को सरकार चलाने में ताकत देना है. तो क्या दिल्ली और बिहार हारने के बाद अमित शाह के पास कोई ऐसा मंत्र है, जो 2016 में बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और 2017 में यूपी, पंजाब और गुजरात तक को बचा लेंगे?
मुश्किल जीत के इतिहास को सहेजने भर की नहीं है. मुश्किल तो यह है कि क्या उत्तर भारत के राजनीतिक मिजाज की जटिलता और पूर्वी भारत की सांस्कृतिक पहचान को भी सिर्फ संगठन के आसरे मथा जा सकता है? क्योंकि, पहली बार आरएसएस राजनीतिक तौर पर सक्रिय होने में गर्व महसूस करने लगा है. राजनीतिक सत्ता के करीब स्वयंसेवकों में आने की होड़ है, क्योंकि सारी ताकत राजनीतिक सत्ता में ही सिमट रही है. पहली बार जनसंघ के दौर से भारतीय राजनीतिक मिजाज के समझनेवाले स्वयंसेवक, प्रचारक या फिर संघ से निकले बीजेपी नेता, वे महत्वहीन माने जा रहे हैं.
यानी सत्ता पर निर्भरता और सत्ता में बने रहने की जद्दोजहद के दौर में अमित शाह को दोबारा बीजेपी अध्यक्ष बनाया गया है, तो वह अध्यक्ष की कार्यकुशलता से ज्यादा प्रधानमंत्री मोदी से निकटता है. तो क्या वाकई मोदी से तालमेल बिठा कर पार्टी चलानेवाले सबसे हुनरमंद अब भी गुजरात से दिल्ली आये अमित शाह ही हैं? और क्या संघ परिवार सत्ता, सरकार, संगठन, पार्टी हर किसी के केंद्र में प्रधानमंत्री मोदी को ही मान रहा है? यानी जो संघ परिवार जनता से सरोकार बिठाने के लिए सरकार पर बाहर से दबाव बनाता था, वह भी वैचारिक तौर पर सत्ता को ही महत्वपूर्ण मान रहा है.
विदेशी पूंजी के निवेश के आसरे विकास की सोच. किसानों के लिए बीमा और राहत पैकेज. दुनिया में भारत को अंतरराष्ट्रीय बाजार के तौर पर बताने की समझ. संवैधानिक संस्थानों से लेकर न्यायपालिका और राज्यसभा तक की व्याख्या सत्तानुकूल करने की सोच.
पड़ोसियों के साथ दूरगामी असर के बदले चौंकानेवाले तात्कालिक निर्णय. और इन सब पर आरएसएस की खामोशी और बीजेपी की भी चुप्पी. यानी समाज के भीतर चेक-एंड-बैलेंस ही नहीं, बल्कि वह तमाम संगठन जो अलग अलग क्षेत्र में काम भी कर रहे हैं, तो फिर उनके होने का मतलब क्या है? क्या सत्ता में रहते हुए स्वयंसेवक के पैसले और संघ के स्वयंसेवक के तौर पर स्वदेशी जागरण मंच, किसान संघ, आदिवासी कल्याण संघ, भारतीय मजदूर संघ की सोच भी एक सरीखी मान ली गयी, या सत्ता बनी रहे, इसलिए दबायी जा रही है. असल में यह सवाल देश के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि संसदीय राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक दलों की समझ व्यापक होना देश के ही हित में होता है.
और बीजेपी के पास संघ परिवार सरीखा ऐसा अनूठा सामाजिक संगठन है, जिसके स्वयंसेवक हर मुद्दे पर देश की नब्ज पकड़े रहते हैं. संघ परिवार सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन होते हुए भी हमेशा राजनीतिक नजर आयेगा या बीजेपी राजनीतिक पार्टी होते हुए भी आरएसएस के राजनीतिक संगठन के तौर पर ही काम कर पायेगा, हो यही रहा है. अमित शाह को दोबारा बीजेपी का अध्यक्ष बनाना चाहिए कि नहीं, इस पर जलगांव में 6 से 8 जनवरी तक संघ परिवार के प्रमुख स्वयंसेवक ही चिंतन करते हैं. 17 जनवरी को सह सरकार्यवाह कृष्ण गोपाल प्रधानमंत्री मोदी को जानकारी देते हैं. उनकी राय लेते हैं. 18 जनवरी को कृष्ण गोपाल बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह से मिलते हैं, उन्हें खुशखबरी देते हैं.
चुनौतियों का सामना करने में अमित शाह के साथ संघ परिवार भी खड़ा है, इसका भरोसा देते हैं. 19 जनवरी को वे अमित शाह से रूठे मुरली मनोहर जोशी और लालकृष्ण आडवाणी से मिलते हैं. जोशी और आडवाणी की तंज भरी खामोशी को अनदेखा करते हैं. 20 जनवरी को 11 अशोक रोड पर यह सूचना चस्पा कर दी जाती है कि 24 जनवरी को सुबह 10 से दोपहर एक बजे तक अध्यक्ष पद के लिए नामांकन होगा. एक से डेढ़ बजे तक नाम वापस लेने और जांच का काम होगा और जरूरी हुआ, तो 25 जनवरी को चुनाव होगा.
यानी समूची कवायद संघ परिवार के आसरे प्रधानमंत्री मोदी को केंद्र में रख कर अगर बीजेपी अध्यक्ष की जरूरत समझी जाती है, तो यहां तीन सवाल हैं. क्या बीजेपी राजनीतिक दल नहीं, बल्कि संघ परिवार का राजनीतिक संगठन मात्र है? क्या मौजूदा राजनीतिक शून्यता में संघ परिवार राजनीतिक हो रहा है? क्या राजनीतिक सत्ता ही सबकुछ हो चुकी है?
यानी जिसके पास सत्ता पर बने रहने के मंत्र हैं, वही सबसे ताकतवर है. अगर यह समूची कवायद मौजूदा राजनीति का सच है, तो फिर चुनाव जीतने के तरीके अपराध, भ्रष्टाचार और कालाधन के नैक्सस से कैसे जुड़े हैं, इस पर तो नब्बे के दशक में ही वोहरा कमेटी की रिपोर्ट अंगुली उठा चुकी है.
यानी देश का रास्ता उसी चुनावी व्यवस्था पर टिक रहा है, जिसे ना तो स्टेट्समैन चाहिए, ना सामाजिक समानता, ना राजनीतिक शुद्धीकरण और ना ही हिंदू राष्ट्र. उसे सिर्फ सत्ता चाहिए. और सत्ता की इसी सोच में एक तरफ संघ है, तो दूसरी तरफ सरकार और दोनों के बीच में अमित शाह दुनिया के सबसे बड़े राजनीतिक दल के अध्यक्ष.

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