चुनावी हथकंडों और आदर्शवादी सुधार के नाम पर इन दिनों ‘यौन शोषण’ का मुद्दा खूब उछाला जा रहा है. इसका इस्तेमाल इतनी बार हो रहा है कि यह शब्द अपना अर्थ ही खो बैठा है. आरोप मढ़ने वालों और आरोपित किसी को भय नहीं. बस गिरफ्तारी से बचने और अग्रिम जमानत की व्यवस्था में जुट जाना है. देश की नौका डूब रही है, किसे चिंता है.
हिंसा-प्रतिहिंसा-आतंक बढ़ रहा है, किसे फिक्र है. महिलाएं अपमानित हो रही हैं और लोग बस बयानबाजी कर रहे हैं. जांच कमिटी बनायी जाती है. जब तक जानकारियां बटोरने और सही आरोपी तक पहुंचा जाता है, तब तक मीडिया और नेताओं को नया मुद्दा मिल जाता है. तसवीर ही बदल जाती है. बुद्धिजीवी वर्ग हतप्रभ, जनता निराश और बेटियां हताश हैं, कोई समाधान है आपके पास? संभवत: इसका उत्तर इतना आसान नहीं है.
पद्मा मिश्र, ई-मेल से