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बच्चे अपने समाज में ही सब सीखते हैं

पेन बेचनेवाला स्कूली बच्चों से बहुत सरल ढंग से मुखातिब था. जब तक आप सरल नहीं होंगे, किसी को कुछ बेच नहीं सकते. यह बाजार का आचरण है. बाजार तरलता और सरलता के साथ बढ़ता है. वह बच्चों से पूछ रहा था कि जब ट्रेन गुजर रही होती है, तो फाटक क्यों बंद कर दिया […]

पेन बेचनेवाला स्कूली बच्चों से बहुत सरल ढंग से मुखातिब था. जब तक आप सरल नहीं होंगे, किसी को कुछ बेच नहीं सकते. यह बाजार का आचरण है. बाजार तरलता और सरलता के साथ बढ़ता है. वह बच्चों से पूछ रहा था कि जब ट्रेन गुजर रही होती है, तो फाटक क्यों बंद कर दिया जाता है. सरल बच्चे सरल जवाब दे रहे थे. पेन वाले का उत्तर था कि ट्रेन के गुजरते समय फाटक इसलिए बंद कर दिया जाता है, ताकि ट्रेन किसी के ‘घर’ में न घुस जाये. बच्चे हंस पड़े. मूल्य उस उत्तर का नहीं, बच्चों की उस हंसी का है, जो एक झूठ के सहारे उनके होठों तक आयी थी. गूढ़ ज्ञान की बातें माहौल को गंभीर कर देती हैं.

ऐसे ही एक विज्ञापन टीवी पर देख रहा था. जिसमें बुजुर्ग दादा अपनी पोती से पूछता है कि क्या कर रही हो? बच्ची का जवाब बहुत स्तब्धकारी होता है. वह कहती है इंडस्ट्री बना रही हूं. यह अलग-अलग समुदाय और समाज से आनेवाले बच्चों का मनोविज्ञान है. वे अपने समाज से ही सब सीखते हैं. आदिवासी दर्शन की एक पत्रिका ‘अखड़ा’ पढ़ रहा था. आदिवासी सहित भारतीय समाज कितनी तेजी से बदल रहा है, इसका अनुमान लोक गीतों को सुन कर किया जा सकता है. लोक गीतों में आदिवासी प्रेमी आज भी अपनी प्रेमिका से कहता है- मैं तुम्हारे लिए गुलगुला ला दूंगा, मिठाई खिलाऊंगा, तुम्हें बाजार घुमाने ले जाऊंगा. दूसरी ओर हिंदी फिल्मों में हीरो हिरोइन से झूठी और काल्पनिक वायदे करता है- तुम्हारे लिए चांद तारे लाऊंगा.

समाजों के अपने प्रतिमान हैं. हम लोकल भले न हो पाये हों, पर हम सेमिनारों में ग्लोबल होने का दावा उसी तरह से कर लेते हैं, जैसे सर्दियों में ट्रेने भले ही तीस घंटा तक लेट हो जाये, लेकिन हम बुलेट ट्रेने तो चला ही सकते हैं. झूठ और सच के इसी पेंडुलम के बीच समाज लटकता है. हम खुश रहते हैं. यथार्थ और वास्तविकता के इसी द्वंद्व से समाज का निर्माण होता है. पर इन्हीं सब के बीच सरलता और हंसी बहुत जरूरी है. यह हम सबको खत्म होने से बचाता है.

मेरे पड़ोस में एक भतीजा है. इतना सिंसियर कि सुबह उठ कर टीवी पर योग करते देखता है. ऐसे लड़के बूढ़ों को प्रभावित कर लेते हैं. मुझे भी इन दिनों उस पर प्यार आ रहा है. उसने बताया चाचा आप वाॅट्सएप्प प्रयोग करते हैं. मैं सकुचाया फिर धीरे से बोला- हां करता हूं. वह बोला, चाचा शरमाते क्यों हैं? आजकल सभी प्रयोग करते हैं. मैंने कहा, बेटा थोड़ा संकोच है कि इस जमाने में कोई क्या सोचेगा कि बुजुर्गवार भी वॉट्सएप्प चलाने लगे. अभी पढ़ रहा था कि उसी के कारण हजारों लड़कियां घर से बिजली की तरह गुल हो गयीं. उसने कहा आप भी गजब करते हैं चाचा. जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी. मैंने सोचा कहीं इसे मेरे बारे में कुछ अतिरिक्त तो नहीं पता लग गया. मैंने सुधारा कि मंझले बेटे ने जब नया मोबाइल लिया, तो बोला पापा अब इसे आप प्रयोग करिये, इसकी बैटरी जल्दी खत्म हो जाती है. भतीजा हंस पड़ा. सब बुजुर्गों के साथ ऐसा ही होता है. खैर अब आप चिंता न करें. स्वदेशी बाबा अब इकोफ्रेंडली मोबाइल ला रहे हैं, जो आंख मार कर चार्ज किया जा सकेगा और आपकी समस्या जाती रहेगी!

डॉ कर्मानंद आर्य

सहायक प्राध्यापक, केंद्रीय विवि, गया

karmanand@cub.ac.in

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