अपनी नासमझी, दुस्साहस, प्रण की रक्षा या फिर किसी नैतिक प्रेरणा से आदमी चाहे और खतरे क्यों न मोल ले, लेकिन हवा, पानी और भोजन को दूषित करने का खतरा नहीं मोल सकता.
भूख मिटा कर, प्यास बुझा कर और सांस लेकर ही दुनिया में अब तक जीवन चलता आ रहा है, सो हवा, पानी और भोजन को दूषित करने का काम असल में जीवन को खत्म करने का ही काम माना जायेगा. इसलिए, कोई व्यक्ति अगर ऐसा करता है तो फिर वह अपराधी है या सिरफिरा, और उसे संदर्भ के अनुकूल या तो सजा की जरूरत है या फिर इलाज की. लेकिन यह अपराध या करतब कोई एक व्यक्ति नहीं, बल्कि पूरी व्यवस्था करे या वह सतर्कता बरतने की अपनी जिम्मेवारी से मुंह मोड़ ले तो क्या किया जाये? द्वेष-भावना के लिए व्यक्ति को दोषी ठहराना आसान है, पूरी व्यवस्था पर दोष देना बहुत मुश्किल.
और, इस मुश्किल का समाधान न ढूंढ़ पाने के कारण ही देश मिलावटी खाद्य-पदार्थों की समस्या से जूझ रहा है. खबर आयी है कि खाद्य-पदार्थों के हर पांच नमूने में से एक नमूना मिलावटी है या उन्हें गलत मार्का या फर्जी नाम से बेचा जा रहा है. दूध और तेल में मिलावट के मामले संख्या में सबसे ज्यादा हैं. देश में सालाना दो अरब डॉलर के बाजार वाले फिटनेस सप्लीमेंट (पूरक आहार) में मिलावट की हालत तो यह है कि इसमें 60 से 70 प्रतिशत उत्पाद नकली या अपंजीकृत हैं और उनका मानकीकरण नहीं हुआ है.
खाद्य-पदार्थों में मिलावट का असर कितना खतरनाक हो सकता है, इसका एक संकेत विश्व स्वास्थ्य संगठन की हालिया रिपोर्ट में है. रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में दूषित भोजन से हर साल 60 करोड़ लोग बीमार पड़ते हैं और सवा चार लाख लोग जान गंवाते हैं, जिनमें सबसे ज्यादा संख्या बच्चों की होती हैं. स्थिति की भयावहता के बावजूद आलम यह है कि अपने देश में मिलावट की जांच करनेवाली कुछ प्रयोगशालाएं बगैर आधिकारिक अनुमति के चल रही हैं और भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण जैसी निगरानी संस्था के अधिकारियों के भ्रष्टाचार के समाचार भी सामने आये हैं.
दोषियों पर जुर्माना और उत्पाद पर पाबंदी जैसे उपाय भी कारगर नहीं हो सके हैं. खाद्य-पदार्थों की मिलावट की समस्या की व्यापकता और लंबे समय से चला आना व्यवस्थागत दोष की तरफ इशारा करती है. ऐसी स्थिति में सरकार के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह नये सिरे से आमूल सुधार के लिए प्रयत्न करे. इस दिशा में त्वरित और ठोस पहल की दरकार है.