भारत और जापान लगभग एक ही समय में स्वतंत्र हुए थे, मगर जापान इतना आगे बढ़ चुका कि बड़ी-बड़ी महाशक्तियां उससे घबराती हैं. इसका कारण तनाका जी यह बताते हैं कि मेरी पीढ़ी के लोगों ने केवल अपने देश जापान के लिए जिया है.
जापान में हिंदी की चर्चा 78 वर्षीय प्रो तोशियो तनाका का नाम लिये बिना पूरी नहीं हो सकती. वे वहां हिंदी भाषा और साहित्य के पुरोधा माने जाते हैं. लंबे समय तक तोक्यो विदेशी भाषा विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष के रूप में सैकड़ों युवाओं में भारतीय भाषा और संस्कृति के प्रति जिज्ञासा करनेवाले प्रो तनाका भारत सरकार द्वारा विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी के शलाका-पुरुष के रूप में सम्मानित किये जा चुके हैं. उन्हें जाॅर्ज ग्रियर्सन पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है.
उन्होंने न केवल हिंदी में प्रवीणता हासिल की, बल्कि गुजराती पर भी पूरा अधिकार जमाया, जिससे महात्मा गांधीजी के ‘हिंद स्वराज’ और आत्मकथा के साथ-साथ ‘दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का इतिहास’ का मूल गुजराती से जापानी में अनुवाद किया. उन्होंने भीष्म साहनी के ‘तमस’ और ‘बलराज : मेरा भाई’ का भी हिंदी से जापानी में अनुवाद किया. इस यात्रा में वे मुंबई के बाद अहमदाबाद जाकर साबरमती आश्रम में भी कुछ क्षण बिताये. परमाणु बम से आहत बौद्ध जापान को महात्मा गांधी के अहिंसा दर्शन में गाढ़ी आस्था है.
दो-तीन वर्ष पहले जब टोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ फॉरेन स्टडीज की ओर से आयोजित एक सेमिनार में भाग लेने जब मैं जापान गया था, तब तनाका जी के वत्सल सान्निध्य में दो दिन गुजारने का सुखद अवसर मिला था. वे बहुत कम बोलते हैं, मगर जो बोलते हैं, वे बहुत सधे हुए शब्द होते हैं. उस यात्रा की यादें इतनी मधुर थीं कि बिरला कॉलेज, कल्याण के सेमिनार में जाने से मैं अपने को रोक नहीं सका.सिर्फ इसलिए की इसमें प्रो तनाका आनेवाले थे. यह सेमिनार बिरला फॉउंडेशन के निदेशक डॉ सुरेश ऋतुपर्ण के निर्देशन में आयोजित था, जो लगभग दस वर्षों तक टोक्यो यूनिवर्सिटी में हिंदी के प्रोफेसर रह चुके हैं.
यह उन्हीं का सबल आग्रह था कि प्रो तनाका इस उम्र में कल्याण जैसे छोटे औद्योगिक उपनगर में आने के लिए तैयार हो गये थे. ‘हिंदी का वैश्विक स्वरूप’ विषयक यह अंतरराष्ट्रीय सेमिनार 27-28 नवंबर को था, लेकिन हमलोग एक दिन पहले मुंबई बुला लिये गये थे. जापान के अलावा श्रीलंका, कनाडा, जर्मनी आदि के भी अधिकारी विद्वान इसमें उपस्थित हुए थे. प्रो तनाका इस सेमिनार के मुख्य अतिथि थे, जो सामान्यतः उद्घाटन कर लापता हो जाता है, मगर यह महापुरुष दोनों दिन सभी सत्रों में दर्शक दीर्घा की अग्रिम पंक्ति की शोभा बढ़ाता रहा, जिसके कारण अन्य प्रतिनिधि भी इधर-उधर नहीं जा सके. चूंकि तीन दिनों तक हमें एक साथ एक ही छोटे-से घर में रहना था, इसलिए आपस में विचारों का आदान-प्रदान भी खूब हुआ. तनाका जी ने बताया कि पहले वे एक कंपनी में अधिकारी थे. जब प्रो दोइ ने (जो 1954 -55 में डॉ धीरेंद्र वर्मा के शिष्य रहे थे) हिंदी विभाग को सुचारू रूप से चलाने के लिए अपने उत्तराधिकारी में तनाका जी को मांगा, तो कंपनी तैयार नहीं हुई. चूंकि इनमें भारतीय भाषा-संस्कृति के प्रति सहज आकर्षण था, इसलिए बड़ी मुश्किल से वहां से निकल सके. किताबें पढ़ने की सनक ऐसी थी कि जब भी भारत आते थे, तो सैर-सपाटे के बजाय फुटपाथों पर पुरानी किताबों को ढूंढ़ते-फिरते थे, जिससे उस विभाग की लाइब्रेरी में सैंकड़ों दुर्लभ हिंदी किताबें और पत्र-पत्रिकाएं संग्रहित हैं. उन्हीं में प्रेमचंद-संपादित ‘जागरण’ पत्रिका का वह अंक भी है, जिसमें वात्स्यायन जी की जेल से मिली कहानी पर लेखक का नाम ‘अज्ञेय’ दिया गया था.
जापानी लोग किसी भी स्थिति में अपने देशवासियों से इतर भाषा में बात नहीं कर सकते. यहां तक कि तनाका जी अपने हिंदी-शिष्य इशिता से भी कभी हिंदी में बात नहीं करते. किसी के पूछने पर उन्होंने स्पष्ट कहा कि ऐसा करना मेरे लिए शर्म की बात होगी. उस समय उन तमाम ‘विद्वानों’ का सहारा देखने लायक था, जो हिंदी भाषी होते हुए भी रोब झाड़ने के लिए अंगरेजी में बात कर रहे थे. तनाका जी ने यह भी दो टूक शब्दों में कहा कि हिंदी की अच्छी रचनाएं मिलें, तो मैं उनका जापानी में अनुवाद करना चाहूंगा. इस तरह मैं हिंदी की सेवा नहीं, अपनी जापानी भाषा को समृद्ध करना चाहता हूं. आज भी हिंदी के एक-एक शब्द को वे उसी चाव से बटोरते रहते हैं, जैसे बक्से में कंचे बटोरते हैं. खाते समय वे एक-एक व्यंजन का नाम पूछ कर अपनी छोटी-सी डायरी में लिखते जाते थे. शब्दों के प्रति उनकी अंतहीन जिज्ञासा हमें प्रेरित करती. एक रेस्तरां में उन्हें जब मालपुए की तरह का मराठी मिष्ठान ‘पूरनपोली’ दिया गया, तो उन्होंने डॉ सुशीला गुप्ता से उसके बारे में पूरा विवरण लिया.
तनाका जी हिंदी के साहित्यकारों में ‘अज्ञेय’ को बहुत याद करते हैं. उनके साथ बीते क्षणों के बारे में बताते हुए वे कभी अघाते नहीं. वे बताते हैं कि किसी ने वात्स्यायन जी से पूछा था कि हिंदी में ‘न्यूजवीक’ और ‘टाइम’ जैसी पत्रिकाएं क्यों नहीं हैं, तो उन्होंने मुस्कुरा कर कहा कि आप ‘दिनमान’ को एक बार पढ़ जाइए, आपका सारा भ्रम दूर हो जायेगा.तनाका जी को इस बात की तकलीफ है कि हिंदी की कल्पना, धर्मयुग, दिनमान, सारिका, साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी गौरवान्वित करनेवाली पत्रिकाएं बंद हो गयीं. जापान में हिंदी तबसे पढ़ाई जाती है, जब भारत ने उसके विधिवत शिक्षण के बारे में सोचा भी नहीं था. किसी देश की दूरदर्शिता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है! जापान में विदेशी भाषा के रूप में हिंदी सीखनेवालों की संख्या सबसे बड़ी है. भारतीय जीवन में कुछ दिन रचने-बसने की ललक उन छात्रों को भारत खींच लाती है, जिसके लिए वे अपने अर्जन से एक-एक येन बचाते हैं. तनाका जी भी मानते हैं कि विदेशी भाषा सीखने के लिए कोचिंग क्लास नहीं, अंत:प्रेरणा चाहिए. वे अंगरेजी ‘स्पीकना’ सिखानेवाले सड़कछाप कोचिंग स्कूलों की भारत में चक्रवृद्धि पर दुखी थे. इसके बजाय हिंदी का अच्छा उच्चारण सिखाने की व्यवस्था स्कूलों में करने के हिमायती थे.
भारत और जापान लगभग एक ही समय में स्वतंत्र हुए थे, मगर जापान इतना आगे बढ़ चुका कि बड़ी-बड़ी महाशक्तियां उससे घबराती हैं. इसका कारण तनाका जी यह बताते हैं- ‘मेरी पीढ़ी के लोगों ने केवल अपने देश जापान के लिए जिया है. वहां लोग कुछ भी नया करने के लिए हमेशा आगे रहते हैं. वहां अध्यापक छात्र मिल कर क्लासरूम साफ करते हैं. वहां साक्षरता दर शत-प्रतिशत है और वहां के मीडिया हत्या-बलात्कार-दुर्घटना की जगह नये अविष्कारों तथा अन्य ज्ञान-विज्ञान के समाचारों को महत्व देते हैं.’
बुिद्धनाथ िमश्र
वरिष्ठ सािहत्यकार
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