देश के गृहमंत्री को यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि देश में असुरक्षा व अलगाव का माहौल क्यों बन रहा है. इसे सुधारने के लिए राजनीतिक लाभ-हानि से ऊपर उठ कर राष्ट्र-हित में सोचना जरूरी है.
संसद के शीतकालीन सत्र में गर्मी छायी हुई है. भले ही प्रधानमंत्री ने अपनी स्वाभाविक शैली को बदल कर दोनों सदनों में उदार विचारों वाली बात का उदाहरण प्रस्तुत किया हो, पर सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष दोनों के प्रतिनिधियों ने अपने भाषणों में तल्खी को बरकरार रखा है. दोनों ही पक्ष जनतांत्रिक मूल्यों और मर्यादाओं की अवहेलना करते दिख रहे हैं. विपक्ष ने, वर्तमान सत्र में ‘बढ़ती असहिष्णुता’ पर विचार करने की मांग की थी. देश में जिस तरह का धार्मिक, सामाजिक असहिष्णुता का वातावरण बनता जा रहा है, उस पर चिंतन होना चाहिए. लेकिन, सरकार को लगा विपक्ष उसे घेरने की व्यूह-रचना में लगा है, सो उसने विपक्ष की मांग तो मान ली, पर हमले की धार कुंद करने के उद्देश्य से ‘संविधान दिवस’ आयोजन की फुलझड़ी भी छोड़ दी. उस दिन को मनाने में कुछ गलत नहीं है. लेकिन, जिस तरह अचानक सरकार को यह दिन याद आया, और जिस तरह बाबा साहेब आंबेडकर की 125वीं जयंती से इसे जोड़ कर संसद में दो दिन की बहस आयोजित की गयी, उसे देख यही लगता है कि एक सही लगनेवाले काम के माध्यम से सरकार अपना पलड़ा भारी करने की कोशिश कर रही थी.
संविधान दिवस और असहिष्णुता के नाम पर संसद में चार दिन तक खुद को ‘सवा सेर’ सिद्ध करने की कवायद होती रही. होना तो यह चाहिए था कि देश संविधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की शपथ को दोहराता, देश में फैलती असहिष्णुता के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए समरसता फैलाने के तौर-तरीकों पर चिंतन करता. पर, यह सब करने का महज दिखावा ही हुआ. यह मौका एक-दूसरे पर अारोप-प्रत्यारोप लगाने का नहीं था, यह मौका गलतियों को सुधारने की ईमानदार कोशिश करने का था. लेकिन, दुर्भाग्य से हमारे नेता ओछी राजनीति से ऊपर नहीं उठ पाये.
देश में फैलते असहिष्णुता के वातावरण को लेकर हर पक्ष को चिंता होनी चाहिए. एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश इस चिंता के नकली होने और इस चिंतन में खोट होने को ही सिद्ध करती है. दोनों ही पक्ष चिल्ला-चिल्ला कर अपनी बात रख रहे थे. क्या कोई बात शांतिपूर्ण वातावरण में, तर्क संगत तरीके से नहीं की जा सकती? यह बात भी सहज समझ नहीं आती कि हमारे राजनीतिक दल असहिष्णुता को हिंदू और मुसलमान की सीमा में ही क्यों देखते हैं? हकीकत यह है कि असहिष्णुता हर स्तर पर बढ़ रही है. धार्मिक संकीर्णता तो है ही, राजनीतिक सोच में भी असहिष्णुता का जहर फैल रहा है. यदि दादरी इस असहिष्णुता का एक उदाहरण है, तो दूसरा उदाहरण दलित बच्चों के साथ हुआ दुर्व्यवहार है. किसी कलबुर्गी या दाभोलकर का मारा जाना भी समाज में विवेक की बढ़ती उपेक्षा का संकेत है और किसी पेरूमल द्वारा यह घोषणा करने की विवशता कि उसका लेखक मर चुका है, असहिष्णुता का ही उदाहरण है. बुद्धिजीवियों के असंतोष को नकली बताने से बात नहीं बनती, बात बनाने के लिए समाज में लगातार फैलती असंवेदनशीलता के कारणों पर हल्ला बोलना होगा. धर्म, जाति, वर्ण, वर्ग के नाम पर जिस तरह दीवारें उठायी जा रही हैं, उनसे मन का आंगन छोटा ही होता है. हमारी राजनीति इसे समझना ही नहीं चाहती. असहिष्णुता के माहौल की अनदेखी का मतलब एक खतरनाक अज्ञानता का परिचय देना है.
इस खतरे को समझने की कोशिश करने के बजाय हमारे राजनेता राजनीति की बिसात पर एक-दूसरे के मोहरे मारने में लगे हैं. उम्मीद करनी चाहिए कि प्रधानमंत्री ने संसद में अपने दोनों भाषणों में जिस समझदारी का परिचय दिया है, वह उनके अंतरतम की आवाज है. ऐसी ही समझदारी की अपेक्षा देश अपने हर निर्वाचित प्रतिनिधि से करता है.
असहिष्णुता नहीं बढ़ रही है कहने से खतरा मिट नहीं जाता. जहां तक सरकार का सवाल है, उसे यह समझना होगा कि विपक्ष भले ही स्थिति का राजनीतिक लाभ उठाना चाहता हो, पर स्थिति गंभीर है. विपक्ष की बात वह भले ही न माने, पर रक्षा मंत्रालय द्वारा संचालित इंस्टीच्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज एनालिसिस (इडसा) की यह बात तो उसे माननी ही चाहिए कि ‘‘देश में धार्मिक असहनशीलता बढ़ गयी है’’. नौ दिसंबर को होनेवाले राष्ट्रीय सेमिनार के लिए तैयार किये गये ‘विचार-पत्र’ में स्पष्ट कहा गया है, ‘‘देश में असुरक्षा और अलगाव का वातावरण’’ है और ‘‘सेक्यूलर राजनीति ही ध्रुवीकरण को रोक सकती है.’’
गृहमंत्री सेक्यूलर शब्द के दुरुपयोग पर चिंतित हैं. इसके हिंदी अनुवाद से भी उन्हें शिकायत है. गृहमंत्रीजी, शब्द पर मत जाइए, इसके पीछे की भावना को समझिए. समझने की कोशिश कीजिए कि देश में असुरक्षा व अलगाव का माहौल क्यों बन रहा है. इसे सुधारने के लिए राजनीतिक लाभ-हानि से ऊपर उठ कर राष्ट्र-हित में सोचना जरूरी है.
विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
navneet.hindi@gmail.com