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इन तमगों का पानी न उतरने दें

(प्रमोद जोशी)।।वरिष्ठ पत्रकार।।सचिन तेंडुलकर देश के बड़े आइकॉन हैं. उनकी खेल प्रतिभा के कारण देश का सम्मान बढ़ा, जिस पर हम सबको नाज है. उन्हें भारत रत्न देने की घोषणा के राजनीतिक निहितार्थ गहरे हैं और ऑब्जेक्टिव विमर्श खासा मुश्किल. यह सचिन की लोकप्रियता को भुनाने की कोशिश तो नहीं? दिसंबर 2011 में तत्कालीन खेल […]

(प्रमोद जोशी)
।।वरिष्ठ पत्रकार।।
सचिन तेंडुलकर देश के बड़े आइकॉन हैं. उनकी खेल प्रतिभा के कारण देश का सम्मान बढ़ा, जिस पर हम सबको नाज है. उन्हें भारत रत्न देने की घोषणा के राजनीतिक निहितार्थ गहरे हैं और ऑब्जेक्टिव विमर्श खासा मुश्किल. यह सचिन की लोकप्रियता को भुनाने की कोशिश तो नहीं? दिसंबर 2011 में तत्कालीन खेल मंत्री अजय माकन ने जानकारी दी कि उन्होंने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को पत्र लिख कर अनुरोध किया है कि भारत रत्न की पात्रता में खिलाड़ियों को भी शामिल किया जाये. सरकार ने उस साल नवंबर में इस सिफारिश को मंजूर करते हुए इस आशय की अधिसूचना जारी की थी.

कयास तभी लगाया गया था कि शायद सचिन को यह अलंकार मिलने वाला है. फौरन बात उठी कि सचिन के पहले ध्यानचंद को यह पुरस्कार मिलना चाहिए. शायद इसी वजह से तब फैसला रुक गया. हाल में खेल मंत्री ने सरकार के पास सिफारिश भेजी कि ध्यानचंद को भारत रत्न दिया जाये, लेकिन फैसला सचिन के नाम पर हुआ है. अब यह बहस खत्म कि ध्यानचंद को सम्मान मिलना चाहिए कि नहीं. अब उन्हें सम्मान मिले भी तो वैसे ही होगा, जैसे हम महात्मा गांधी को भारत रत्न का सम्मान दें. महात्मा गांधी को भी भारत रत्न नहीं मिला. गांधी को सरकारी सम्मान की जरूरत नहीं. गांधी की तरह ध्यानचंद को सम्मान के लिए सरकारी अलंकरण की जरूरत नहीं है. पर इतिहास के कालक्रम का ध्यान रखना चाहिए. महापुरुषों का सम्मान करने की प्राथमिकता तय करनी चाहिए. भविष्य के इतिहास में सम्मानित व्यक्तियों की सूचियां और उनसे जुड़ी बहसें भी नत्थी होंगी. पर उससे पहले देखें कि दक्षिण एशिया ने क्रिकेट को कहां से कहां पहुंचा दिया है?

1975 में जब एकदिनी क्रिकेट के विश्व कप की शुरुआत हुई थी, तब तक यह अंगरेजों का खेल था. अकसर सवाल होता है कि भारत में क्रिकेट को इतनी अहमियत क्यों दी जाती है, दूसरे खेलों को क्यों नहीं? नयी आर्थिक संस्कृति और कॉरपोरेट-संरक्षण के कारण हमारा क्रिकेट दुनिया के टॉप पर है. इस बदलाव का नेतृत्व भारत ने किया है. पर पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश को मिली सफलताएं भी इसका कारण हैं. सबसे बड़ा कारण तो टीम को मिली सफलता है. सामान्य दर्शक को सफलता और हीरो चाहिए. राष्ट्रीय-अभिमान, उन्माद और मौज-मस्ती के लश्कर इसके सहारे ही बढ़ते हैं.

क्रिकेट लंबा और उबाऊ खेल था. यह खत्म हो जाता अगर ऑस्ट्रेलिया के मीडिया-टायकून कैरी पैकर ने इसे नयी परिभाषा न दी होती. 1975 में पहले विश्व कप के लिए आठ टीमें जुटाना मुश्किल था. उसमें श्रीलंका को शामिल किया गया, जिसे टेस्ट मैच खेलने लायक नहीं समझा जाता था. पूर्वी अफ्रीका के देशों की एक संयुक्त टीम बनायी गयी थी. 1979 में कोई नहीं कहता था कि अगला यानी 1983 का विश्व कप भारत जीतेगा. इंग्लैंड के सट्टेबाज भारत की संभावना पर 66-1 का सट्टा लगा रहे थे. 1982 के एशियाई खेलों के कारण हमारा राष्ट्रीय रंगीन टीवी नेटवर्क काम करने लगा था, पर विश्व कप के टीवी प्रसारण की बात सोची भी नहीं गयी थी. तब ग्लैमर भी नहीं था. 60 ओवर का मैच दिन की धूप में खेला जाता था और खिलाड़ी सफेद कपड़े पहनते थे.

क्रिकेट की जो लोकप्रियता हम देख रहे हैं, उसे इस स्तर पर लाने में मीडिया और कारोबार की भूमिका है. कारोबार को ‘आइकॉन’ चाहिए. वे लोकप्रिय नहीं होंगे तो आइकॉन कैसे? इस विचार से ध्यानचंद निर्थक हैं. भीड़ उन्हें पहचानती नहीं, भले ही वे महान खिलाड़ी रहे हों. हमने इस भीड़ को उनकी महानता से परिचित ही नहीं कराया. लेकिन सचिन तेंडुलकर को पूरा देश पहचानता है, वे महान हैं.

राष्ट्रीय सम्मान राष्ट्रीय प्रतिष्ठा से जुड़े हैं, तो उन्हें लेकर राजनीति भी है. 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी, तब अलंकरणों को खत्म करने का फैसला हुआ. मोरारजी देसाई व्यक्तिगत रूप से अलंकरणों के खिलाफ थे. संयोग है कि 1991 में मोरारजी को भारत रत्न का अलंकरण दिया गया. दूरदर्शन ने जब उनसे प्रतिक्रिया मांगी, तो उन्होंने कहा, मैं ऐसे अलंकरणों के खिलाफ हूं. आप देना चाहते हैं तो मैं क्या कर सकता हूं?

सचिन के साथ प्रो सीएनआर राव के नाम की जरूरत क्या थी? सरकार की इच्छा सम्मान करने से ज्यादा उस लोकप्रियता का लाभ लेने में है, जो सचिन के संन्यास और मंगलयान के प्रक्षेपण के बाद विज्ञान के प्रति विश्वास से उपजी है. सीएनआर राव प्रधानमंत्री की सलाहकार परिषद में हैं. लेकिन क्या हम अपने काबिल वैज्ञानिकों का सम्मान करते हैं? फिर होमी जहांगीर भाभा और विक्रम साराभाई को क्यों भूल गये?

भारत रत्न की सूची ध्यान से देखें, तो पायेंगे कि अलंकरणों का रिश्ता राजनीति से है. कुछ लोग बरसों बाद याद आये और कुछ कभी याद नहीं आये. दिसंबर, 2011 में सीएनआर राव ने कहा था कि डॉ भाभा को भारत रत्न मिलना चाहिए.यह बात उन्होंने तब कही जब सचिन को भारत रत्न देने की मांग करते हुए मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन ने उनसे प्रतिक्रिया मांगी. उन्होंने कहा, ‘दुख की बात है कि आज क्रिकेट को विज्ञान से अधिक महत्व मिल रहा है. मुङो सचिन को यह सम्मान देने पर विचार करने को लेकर कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन भाभा के बारे में क्या? इनका मरणोपरांत सम्मान करने का शिष्टाचार तो कम से कम होना ही चाहिए. मैं प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखूंगा.’ लगता है कि सरकार को उनकी चिट्ठी मिल गयी और उन्हें राव साहब ही सामने नजर आये.

हाल में वल्लभभाई पटेल की विरासत को लेकर जब कांग्रेस और भाजपा के बीच संग्राम चल रहा था, तब इसका उल्लेख हुआ कि पटेल को 1991 में भारत रत्न मिला राजीव गांधी के साथ. पंडित नेहरू को 1955 में, गोविंद बल्लभ पंत को 1957 में, विधानचंद्र रॉय को 1961 में, राजेंद्र प्रसाद को 1962 में, लाल बहादुर शास्त्री को 1966 में, इंदिरा गांधी को 1971 में, वीवी गिरि को 1975 में, के कामराज को 1976 में, एमजी रामचंद्रन को 1988 में और भीमराव आंबेडकर को 1990 में यह सम्मान मिला. इसमें सीवी रमन, एम विश्वसरैया और एपीजे कलाम सिर्फ तीन नाम विज्ञान और तकनीक से जुड़े हैं. कोई जरूरी नहीं कि सारे महापुरुषों का सम्मान हो जाये, पर प्राथमिकता तो दिखती है. जैसे खेल में हमें ध्यानचंद याद हैं, वैसे ही विज्ञान में हमें भाभा और साराभाई याद हैं. सरकार को सीएनआर राव का नाम याद रहा, सीआर राव का नहीं, जिनका नाम आज दुनिया के श्रेष्ठतम गणितज्ञों, सांख्यिकीविदों में शुमार किया जाता है. अभी और भी नाम हैं. पर प्रतिभा का सम्मान एक बात है और लोकप्रियता दूसरी. फैसला सरकार का है. बहस आप करिए.

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