कई साल पहले समाजशास्त्री आशीष नंदी ने ‘भारतीय राजनीति के लौह नियम’ को परिभाषित किया था. उनके अनुसार, एक चुनी हुई सरकार को मोहभंग होने की स्थिति तक पहुंचते-पहुंचते डेढ़ साल लगता है. कुछ ऐसा ही हश्र केंद्र की मौजूदा राजग सरकार के साथ हुआ है. ठीक डेढ़ साल बाद लोगों का धैर्य जवाब देता दिख रहा है.
पहले दिल्ली में भाजपा का सूपड़ा साफ. अब बिहार में राजनीतिक नाकामी यह बताने को काफी है कि राजनीतिक लफ्फाजी और बयानबाजी से मतदाताओं को लुभाने की कोशिश हर बार सफल नहीं होती. देश के मतदाता अब परिपक्व हो रहे हैं. इसलिए कुछ वर्षों से चुनावों में न सिर्फ वोटिंग प्रतिशत बढ़ा है, बल्कि खंडित जनादेश देने की बजाय बहुमतवाली एक स्थायी सरकार के गठन को लोग प्राथमिकता दे रहे हैं. राजनीतिक दलों व नेताओं को सीखने की जरूरत है कि अनर्गल मुद्दों को तूल देकर नकारात्मक राजनीति करना सियासी नुकसान लेकर आता है. यूपीए सरकार के काल में महंगाई, घोटाला, भ्रष्टाचार आदि से त्रस्त होकर जनता ने एक विकल्प के रूप में भाजपा को देखा था और बड़ी आशा के साथ बीते लोकसभा चुनाव में मतदाताओं ने बहुमत की आंधी के साथ नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार को देश की कमान सौंपी थी.
एनडीए सरकार के 18 माह के शासन को देख कर लोगों में असंतोष है. इसे कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि यह सरकार तो केवल घोषणा, कार्यक्रम व अभियान तक ही सीमित रह गयी है. एक तरफ लोग महंगाई की मार झेल रहे हैं, तो दूसरी तरफ अराजक तत्व देश की एकता व अखंडता को खंडित करने में लगे हैं. आखिर जनता कब तक सहेगी? चुनाव में वह अपना क्षोभ तो प्रकट करेगी ही. आज देश में सकारात्मक राजनीति तथा विकास की जरूरत है, ताकि जनता खुद को ठगा महसूस न करे.
सुधीर कुमार, राजाभीठा, गोड्डा