यह बिहार है. इसकी हर अदा सबसे जुदा रहती है. लोग इससे चौंकते भी हैं और यह चौंकाता भी है. अब बिहार का चुनावी नतीजा बहुत कुछ कह रहा है. कुछ बहुत साफ है, तो कुछ इशारा कर रहा है. जैसे, नफरत की राजनीति कभी इस बिहार का मुख्य स्वर नहीं रहा. नतीजे भी साफ-साफ बता रहे हैं कि असहिष्णुता की राजनीति यहां नहीं चली. मगर क्या हमेशा ऐसा रहेगा, यह कहना मुश्किल है.
पहली बार बिहार ने सांप्रदायिक आधार पर इतना तीखा और सघन प्रचार देखा है. गाय, गोमांस, पाकिस्तान, धर्म के आधार पर आरक्षण, आतंक- ये सारी बातें, मुद्दे के रूप में उछाली गयीं. एक नहीं, भाजपा के तीन-तीन विज्ञापन इसी वजह से चुनाव आयोग की आलोचना के शिकार हुए. जाहिर है, इन सबका मकसद सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण करना था. हालांकि, ऐसे प्रचार का सीटों की संख्या पर असर भले न हुआ हो, लेकिन यह टोलों-टोलों तक पहुंचा. वोटरों की बड़ी तादाद भले ही भाजपा के इन मुद्दों के साथ नहीं गयी, पर एक हिस्सा तो जरूर गया. भाजपा को मिले एक चौथाई वोट तो कम से कम से यही बता रहे हैं.
इसलिए ये मुद्दे भले ही इस चुनाव के साथ दबते दिखें, लेकिन समाज में अविश्वास का बीज पड़ गया है. अगर इसे खाद-पानी मिलता रहा, तो आज नहीं तो कल यह अंकुरित होगा. सवाल है, राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर नफरत के इस बीज को अंकुरित होने से महागठबंधन कैसे रोकता है? यह न सिर्फ बिहार के लिए, बल्कि पूरे देश के लिए अहम है. जैसे इस चुनाव के नतीजे अहम साबित होंगे.
एक और अहम बात है जिसकी चर्चा रिजल्ट के साथ शुरू हो गयी है. चुनाव के दौरान लालू-राबड़ी के पिछले शासनकाल को ‘जंगलराज’ के रूप में खूब प्रचारित किया गया. यह नीतीश कुमार से ज्यादा राष्ट्रीय जनता दल और लालू प्रसाद यादव की जिम्मेवारी है कि वे इस छवि को कैसे तोड़ते हैं. उनके विधायक और कार्यकर्ता कितने संयत रहते हैं! ये भी देखना होगा कि वे राजनीति के नए मुहावरे को कैसे अपनाते हैं.
यह जीत महज अंकगणित नहीं है. यह नये सामाजिक गंठबंधन की जीत है. इसमें हर समुदाय, संप्रदाय और जाति का योगदान है. वरना इतनी बड़ी जीत मुमकिन नहीं होती. इसलिए अब बड़ी चुनौती है कि विकास के पैमाने पर किसी के साथ भेदभाव न हो.
अब वक्त है कि नीतीश कुमार अपने चुनावी संकल्प को ईमानदारी से पूरा करें. विकास के हाइवे की राह अभी दलित और महादलित टोलों से दूर है, लेकिन यहां के लोग नीतीश का नाम लेते हैं. अब सवाल है कि महागंठबंधन की सरकार उनकी नियति बदलती है या उन्हें सुराज के लिए अभी और इंतजार करना पड़ेगा?
इस चुनाव में सीमांचल के विकास की बात बार-बार उठी. हालांकि, असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी कोई निशान छोड़ने में नाकाम रही. फिर भी इलाके के विकास का मुद्दा तो बरकरार है. वैसे, इस चुनाव में मुसलमानों के मुद्दे पीछे रहे. यह एक तरह से अच्छा भी था. अब वक्त है कि नयी सरकार सीमांचल के विकास पर खास तवज्जो दे, क्योंकि विकास ही बांटनेवाली शक्तियों को रोकने का इलाज है.
नासिरुद्दीन
स्वतंत्र पत्रकार
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