।। चंदन श्रीवास्तव ।।
एसोसिएट फेलो सीएसडीएस
पैदल–यात्रियों और साइकिल सवारों के लिए ज्यादातर सड़कों पर अलग से कोई ‘लेन’ नहीं है और जहां यह सजावटी तौर पर बनायी गयी है, वहां दिल्ली की 20 फीसदी आबादी कार ‘पार्क’ करके अपनी हैसियत जताती है.शायद ही कोई होगा जो यह मानने से इनकार करे कि साइकिल चलाना सीख कर वह ‘सयाना’ न हुआ. बेशक वक्त बदला है और नये भारत के होनहार बिरवानों को उड़नखटोले से कम की सवारी का सपना तक नहीं आता, मगर वे दिन भी बहुत दूर नहीं गये, जब बालपन से किशोरावस्था में कदम रखने की एक कसौटी यह हुआ करती थी कि आपने साइकिल चलाना सीख लिया है या नहीं.
कमाल का वाहन है साइकिल भी–आप ही सवार होते हैं और आप ही इसका इंजन बनते हैं. साइकिल की शायद इसी खासियत को याद करके बीसवीं सदी के अगुआ वैज्ञानिकों में से एक अल्बर्ट आइंस्टीन ने अपने बेटे एडुअर्ड को एक चिट्ठी में जिंदगी का फलसफा समझाया कि ‘जिंदगी साइकिल की सवारी सरीखी है, आपको संतुलन साधने के लिए हमेशा बढ़ते जाना होता है.’
अगर आधुनिकता का एक लक्षण तेजरफ्तारी है और पुरातनता की एक पहचान धरतीपकड़ होना, तो फिर कहा जा सकता है कि साइकिल अपने स्वभाव से आधुनिक है, मगर स्वभाव की परिणति में पुरातन. साइकिल का सवार गतिशील तो होता है, लेकिन इतना भी नहीं कि उससे वह धरती छूट जाये, जो उसकी गतिशीलता की बुनियाद है.
तभी तो साहित्य का नोबेल पुरस्कार जीतनेवाले, ताउम्र मुसाफिर रहे पत्रकार अर्नेस्ट हेमिंग्वे को लगा था कि– ‘साइकिल की सवारी करते हुए देश की रूप–रेखा को आप ठीक–ठीक समझ पाते हैं, क्योंकि तब आपको ऊंचाई पर चढ़ने और ढलान से उतरने के लिए पसीना बहाना पड़ता है, आप ऊंचाइयों और ढलानों को उनके वास्तविक स्वरूप में करीब से देखते हैं.
लेकिन, जब आप कार की सवारी करते हैं, तो आपकी नजर बस ऊंचाइयों पर अटकती है, सफर में जो देश पीछे छूटता जाता है, उसकी वैसी कोई वास्तविक याद आपके पास नहीं होती, जैसी कि साइकिल की सवारी करने से होती है.’ आइंस्टीन की सीख को सामने रख कर नीति–निर्माताओं से पूछिए कि क्या तेज आर्थिक विकास से सार्वजनिक जिंदगी में कोई संतुलन सध रहा है?
हेमिंग्वे के अनुभव को नजीर मान कर एक सवाल खुद से पूछिए कि विश्वस्तरीय सुविधाओं के सपने संजोनेवाले हमारे मध्यवर्गीय मन से कहीं अपनी तेजरफ्तारी में पूरा देश ही तो पीछे नहीं छूटता जा रहा है?
चुप्पी साध कर चलनेवाली साइकिल के बहाने बड़बोले लगते इन सवालों को पूछना फिलहाल प्रासंगिक है. प्रासंगिक इसलिए कि अभी साइकिल चर्चा में है. चूंकि साइकिल कभी अपनी जमीन नहीं भूलती, इसलिए इस साइकिल–चर्चा ने अपना हैंडिल घुमा कर विकास की धारणा पर बहस का रूप ले लिया है.
पिछले हफ्ते देश की प्रख्यात पर्यावरणविद् सुनीता नारायण को दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के पास एक कारचालक ने टक्कर मारी. यह दुर्घटना खासी प्रतीकात्मक साबित हुई. टक्कर प्लाइओवर पर लगी, जिसे दिल्ली सरकार विकास का नमूना कह कर प्रचारित करती है.
सुनीता नारायण सुबह की सैर के लिए साइकिल पर सवार थीं. सुनीता मानती हैं कि अगर विकास का एक मतलब है बुनियादी ढांचे का निर्माण और विस्तार है, तो फिर, इस निर्माण और विस्तार में साइकिल–सवार और पैदल–यात्रियों को मिलनेवाली जगह से तय होता है कि इस देश की राजनीति आमजन के सरोकारों से कितनी दूर या पास है. घायल सुनीता ने तीखे तेवर में ट्वीट किया कि ‘भारत के शहर कार के लिए रास्ता तैयार करते हुए साइकिल से उसका आखिरी किनारा भी छीन रहे हैं.’
कारवाले सचमुच साइकिल सवारों और पैदल–यात्रियों से सार्वजनिक परिवहन का अधिकार छीन रहे हैं और विडंबना यह है कि नीति–निर्माता इसे देश की आर्थिक–वृद्धि के लक्षणों में गिनते हैं, तभी तो सड़क बनाते समय उसमें न तो साइकिल–सवारों का ध्यान रखा जाता है, न ही पैदल–यात्रियों का.
सरकारी आकलन है कि देश की 30 फीसदी शहरी आबादी अपना रोजाना का घर–बाजार, स्कूल–दफ्तर पैदल ही निबटाती है. मिसाल के लिए, सरकारी अनुमोदन प्राप्त 2010 के एक सर्वे में कहा गया था कि 34 फीसदी दिल्लीवासी रोजाना का काम–काज पैदल चल कर निबटाते हैं.
दिल्ली की सड़कों पर प्रतिदिन साइकिल के 45 लाख फेरे लगते हैं. कुल ट्रैफिक में साइकिल से होनेवाली यात्रा का हिस्सा महानगर के पांच मुख्य मुहानों पर कभी भी 19 फीसदी से कम नहीं होता, ज्यादातर साइकिल–सवारों का गंतव्य अपनी जीविका का ठिकाना होता है. दिल्ली में साइकिल से होनेवाले फेरों की संख्या में रिक्शाचालकों को भी जोड़ लीजिए, क्योंकि दिल्ली में रिक्शों की तादाद पांच लाख है. इससे दिल्ली में 20 लाख लोगों की जीविका जुड़ी है.
दिल्ली की सड़कें पैदल यात्री, साइकिल सवार या रिक्शा–चालक के साथ क्या बरताव करती हैं? दिल्ली म्युनिसिपल कॉरपोरेशन ने शहर को तीन हिस्सों में बांट रखा है और रिक्शों को चलने की इजाजत महज ‘रेड–जोन’ में है. उस पर भी सितम यह कि कारों की तेजरफ्तारी बनाये रखने के नाम पर रिक्शों की अधिकतम संख्या 99 हजार तक सीमित की गयी है यानी शेष चार लाख रिक्शे ट्रैफिक पुलिस की जेब गर्म करके चलते हैं.
पैदल–यात्रियों और साइकिल सवारों के लिए ज्यादातर सड़कों पर अलग से कोई ‘लेन’ नहीं है और जहां यह सजावटी तौर पर बनायी गयी है, वहां दिल्ली की 20 फीसदी आबादी कार ‘पार्क’ करके अपनी हैसियत जताती है.
रही बात पैदल चलनेवालों की, तो उनके लिए अलग से किसी व्यवस्था की जरूरत है, ऐसा नगर–योजना के निर्माता बस कागजों में सोचते हैं. दूसरे शहरों की स्थिति दिल्ली से अलग नहीं है. विश्वास न हो, तो कोलकाता का उदाहरण याद कीजिए, जहां साल 2008 से लगातार ट्रैफिक को तेजरफ्तार बनाने के नाम पर सड़कों से ठेलों, रिक्शों और साइकिल सवारों को बाहर किया जाता रहा है.
याद रहे, ठेले–रिक्शे या साइकिल की सवारी करनेवालों में ज्यादातर वही लोग हैं जिनकी कमाई इतनी भी नहीं कि खुद पर रोजाना 100 रुपये खर्च कर सकें. ये वही लोग हैं जिन्हें महानगर बाहरी मान कर ‘बिहारी’ और ‘भैया’ सरीखे हिकारत भरे नामों से पुकारता और चौड़ी होती सड़कों पर कारों की तेज होती रफ्तार के बीच मरने के लिए छोड़ देता है.
सड़क पर पैदल यात्री, साइकिल–सवार या फिर रिक्शा और ठेला–चालक के लिए जगह का सिकुड़ते जाना, दरअसल नये बनते देश के भीतर आम आदमी के लिए जगह के सिकुड़ने की घोषणा है. इसलिए चुनाव की इस वेला में कोई हुंकार भर कर वोट मांगने आये, तो उससे जरूर पूछिए कि आपके विकास के मॉडल में मेरी साइकिल के लिए कितनी जगह है!