झारखंड में में बार-बार पुलिस का संयम टूट जाता है. पुलिस निर्दोषों पर लाठी भांज कर अपना गुस्सा उतारती है. इसका असर यह है कि पुलिस-पब्लिक के बीच की दूरी बढ़ रही है. इसका फायदा असामाजिक तत्वों को मिलेगा. निर्दोष के मन में लाठी का इस तरह खौफ रहता है कि वह मन मार कर भी पुलिस की मदद नहीं कर पाता है.
राजधानी रांची में 17 अक्तूबर को पुलिस-प्रशासन के अफसरों के सामने जवानों ने किशोरगंज में एक हत्या के खिलाफ रोड जाम कर रहे लोगों को जम कर पीटा. हद तो यह हो गयी कि पुलिस को फायरिंग से भी गुरेज नहीं रहा. सौभाग्य से कोई बड़ा हादसा नहीं हुआ. अब पुलिस कह रही है कि रोड जाम करने वालों ने पथराव किया. साथ ही जाम करने में शामिल युवक पुलिस पर गोलियां चला रहे थे. इसकी जवाबी कार्रवाई में ही पुलिस को लाठी चार्ज करने के साथ फायरिंग करनी पड़ी. घटना से जुड़े वीडियो फुटेज पुलिस के इस तर्क को झुठला रहे हैं.
पुलिस ने जाम में शामिल महिलाओं और बुजुर्गों तक को नहीं बख्शा. दरअसल पुलिस के पास बल प्रयोग के अलावा कोई तैयारी नहीं थी. पुलिस लोगों के विरोध को झेलने के लिए तैयार ही नहीं थी. पुलिस में सिपाही-हवलदार को इस तरह की घटनाओं से निबटने का एक ही तरीका बताया जाता है, वह है बल प्रयोग. पुलिस के जवानों को यह भी प्रशिक्षण नहीं मिलता है कि इस तरह की घटना में कैसे कम से कम बल प्रयोग करके मामले को सलटा दिया जाये. 17 अक्तूबर को किशोरगंज में हुई घटना में सबसे दुखद पहलू यह है कि बड़े स्तर के अधिकारियों की मौजूदगी में जवानों ने लाठी भांजनी शुरू कर दी. वे इतने उग्र थे कि बड़े अधिकारियों के निर्देश को भी नहीं मान रहे थे.
ऐसी स्थिति भविष्य में न बने, इसके लिए पुलिस-प्रशासन के सोच में बदलाव जरूरी है. पुलिस के हाथों कानून-व्यवस्था बनाये रखने की महती जिम्मेवारी है. जब पुलिस खुद ही बेलगाम हो जायेगी, तो स्थिति को कौन काबू कर सकता है. यूं भी समाज में आ रहे बदलाव के मद्देनजर पुलिस के एप्रोच और कार्यप्रणाली में सुधार की जरूरत है. झारखंड में पुलिस बार-बार अपनी छवि सुधारने की कवायद में जुटी रहती है लेकिन इस तरह की घटनाओं से आम लोगों में और खौफ ही पैदा होता है, जो आधुनिक पुलिसिंग के लिए ठीक नहीं है.