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हिंसा और मीडिया
भाई प्रेम-संबंध में आड़े आ रहा था, तो बहन ने मौका देख उसे सदा के लिए रास्ते से हटा दिया! लुकाछिपी खेलने के बहाने भाई की आंखों पर पट्टी बांधी, हाथ को दुपट्टे से कसा और गले पर चाकू चला दिया. यह घटना भले ही गुजरात के अमरेली जिले की है, परंतु हम जिस वक्त […]
भाई प्रेम-संबंध में आड़े आ रहा था, तो बहन ने मौका देख उसे सदा के लिए रास्ते से हटा दिया! लुकाछिपी खेलने के बहाने भाई की आंखों पर पट्टी बांधी, हाथ को दुपट्टे से कसा और गले पर चाकू चला दिया. यह घटना भले ही गुजरात के अमरेली जिले की है, परंतु हम जिस वक्त में जी रहे हैं, उसमें ऐसी घटना कहीं भी घट सकती है.
वजह हमारे सामने मौजूद हैं, पर हम उनकी शिनाख्त समय रहते नहीं करते या यदि करते भी हैं तो लाचारी के भाव से, मानो छिन्न-भिन्न होते मानवीय मूल्यों को रोक पाना हमारे वश में न हो. ऊपर के प्रसंग में आश्चर्यजनक क्या है? क्या यह कि किसी बहन ने अपने भाई की हत्या कर दी? या यह कि हत्या करनेवाली बहन बालिग भी नहीं हुई थी और उसे लग रहा था कि परिवार उसकी इच्छाओं की पूर्ति में आड़े आ रहा है? नहीं, बहन द्वारा भाई की हत्या की यह पहली घटना नहीं है और शायद आखिरी भी नहीं. पहले भी प्रेम-संबंधों में परिजन को बाधा मान कर नाबालिगों ने उनकी जान ली है.
क्या इसमें आश्चर्यजनक यह है कि भाई की हत्या करनेवाली लड़की एक मध्यवर्गीय परिवार से है, पिता वकील हैं, मां स्वास्थ्यकर्मी हैं और मां-बाप में किसी का भी आपराधिक रिकार्ड नहीं रहा है, तो भी उसने अपने पारिवारिक संस्कारों को धता बताते हुए भाई की हत्या की योजना बनायी और उसे क्रूरता के साथ अंजाम दिया? नहीं, क्योंकि मध्यवर्गीय परिवारों के मानस में हत्या के मनोभाव सिरे से अनुपस्थित रहे हों, ऐसा नहीं कहा जा सकता. मध्यवर्गीय घर-आंगन दहेज-हत्याओं एवं ऑनर-कीलिंग जैसे जघन्य कर्म के बारंबार साक्षी बने हैं.
चाहे हत्या करनेवाले की उम्र (नाबालिग) व लिंग (लड़की) को आधार बनाएं, या उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि (मध्यवर्गीय), या हत्या के प्रधान कारण (प्रेम-संबंध में परिवारजन से पहुंचती बाधा) को, यह घटना ऐसी घटनाओं की पहले से चली आ रही कड़ी का ही एक हिस्सा जान पड़ती है. लेकिन, अमरेली की घटना में एक तथ्य ऐसा भी है जो इसे ऐसी अन्य घटनाओं से अलग करता है. यह तथ्य हत्या करनेवाली लड़की की स्वीकारोक्ति में मौजूद है.
स्वीकारोक्ति पुलिस के हवाले से खबरों में आयी है, इसलिए उस पर संदेह के कारण हो सकते हैं. लेकिन, यदि यह सही है तो हमें मान लेना चाहिए कि हम सूचना आधारित समाज के आवरण में हत्या को प्रश्रय देने वाले सामाजिक माहौल की रचना कर रहे हैं. हत्यारी लड़की ने स्वीकार किया है कि हत्या करने की उसकी योजना टीवी पर चलनेवाले एक क्राइम शो पर आधारित थी. इस शो में एक पति ने पत्नी की हत्या के लिए वही तरीका अपनाया था, जो अमरेली की घटना में लड़की ने अपनाया. यह तय है कि हर हत्या क्राइम शो से प्रेरित नहीं होती. हत्या का कारण भी पहले से मौजूद था. भाई लड़की के प्रेम-संबंध में बाधा बन रहा था.
तर्क यह भी दिया जा सकता है कि उस क्राइम शो को औरों ने भी देखा होगा, प्रेम-संबंध उनके भी रहे होंगे और प्रेम-संबंध में बाधा पहुंचानेवाले लोग भी होंगे, लेकिन उन्होंने तो हत्या नहीं की. लेकिन, टीवी कार्यक्रम, सिनेमा, लोकप्रिय साहित्य आदि के बारे में जब भी कोई यह सवाल उठाता है कि उनमें सेक्स, हिंसा और अंधविश्वास जैसे तत्वों की भरमार है और ऐसा होना पारिवारिक एवं सामाजिक माहौल को दूषित कर सकता है, तो अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा की बात कह कर कमोबेश ऐसे ही तर्क दिये जाते हैं.
कहा जाता है कि ऐसा कोई भी वैज्ञानिक अध्ययन मौजूद नहीं है जो सिद्ध करे कि हिंसा, सेक्स और अंधविश्वास से भरी मीडिया प्रस्तुतियों को देख या पढ़ कर लोगों का व्यवहार बदल गया और वे ज्यादा हिंसक, अंधविश्वासी या फिर व्यभिचारी बन गये.
इन तर्कों को सही मान लेने पर भी अमरेली की घटना में हत्यारी करार दी गयी लड़की की स्वीकारोक्ति की अहमियत कम नहीं होती. भले इस बात का कोई प्रामाणिक अध्ययन मौजूद न हो कि हिंसा की प्रस्तुतियों को देख लोगों का व्यवहार परिवर्तित होता है और वे ज्यादा हिंसक हो जाते हैं, पर यह बात शायद ही झुठलायी जा सके कि हिंसा, सेक्स और अंधविश्वास की कथाओं की निरंतर और बड़ी मात्रा में मौजूदगी इन्हें व्यक्ति के मानस में सहज-सामान्य अनुभव के रूप में दर्ज करती है. मीडिया की प्रस्तुति, चाहे वह ध्वनि एवं दृश्य रूप में हो या शब्द रूप में, व्यक्ति के मानस में एक कथा का निर्माण करती है.
यदि कथा में किसी चीज की अधिकता हो, और कथा रूप बदल कर बारंबार सुनायी जाती हो, तो फिर व्यक्ति का मानस अधिकता में प्रस्तुत किये जा रहे भाव या वस्तु को ही सामान्य मान लेता है. अचरज नहीं कि मीडिया में प्रस्तुत की जा रही ऐसी कथाएं एक ऐसे दर्शक या पाठक वर्ग का निर्माण करे, जो सेक्स और हिंसा जैसे मनोभावों को सामान्य मान ले.
मीडियामुखी समाज में हिंसा और सेक्स सरीखे अनुशासित मनोभावों के सहज-सामान्य बनते जाने का यह खतरा अमरेली जैसी घटना के दुहराव का कारण बन सकता है.
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