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एक अखबार विक्रेता की जिंदगी का सच

अनूप शुक्ल सक्रिय ब्लॉगर वे मेरे यहां पिछले 14 साल से अखबार दे रहे हैं. नाम है राजेश मिश्र. शुक्लागंज में रहते हैं और उन्नाव से आर्मापुर तक अखबार बांटते हैं. मतलब रोज कम से 50-60 किलोमीटर की साइकिलिंग करते हैं. मिसिरजी (लोग उन्हें इसी नाम से बुलाते हैं) का दिन सुबह ढाई बजे यानी […]

अनूप शुक्ल
सक्रिय ब्लॉगर
वे मेरे यहां पिछले 14 साल से अखबार दे रहे हैं. नाम है राजेश मिश्र. शुक्लागंज में रहते हैं और उन्नाव से आर्मापुर तक अखबार बांटते हैं. मतलब रोज कम से 50-60 किलोमीटर की साइकिलिंग करते हैं. मिसिरजी (लोग उन्हें इसी नाम से बुलाते हैं) का दिन सुबह ढाई बजे यानी आधी रात में ही शुरू हो जाता है. तीन बजे तक उन्नाव रेलवे स्टेशन पहुंच जाते हैं.
वहां से अखबार लेते हैं. फिर स्टेशन से ही शुरू कर अखबार बांटते हुए अर्मापुर तक आते-आते 7 से 8 तक बज जाते हैं. मिसिरजी ग्राहकों से भुगतान भले ही महीने या दो-तीन महीने में लेते हों, एजेंसी से अखबार सब्जी की तरह रोज का रोज भुगतान करके खरीदते हैं. उन्नाव जिले के तकिया गांव के रहनेवाले हैं मिसिरजी. यह गांव उन्नाव से सात किमी दूर है. गांव में चार बीघा खेती है. बच्चे हैं नहीं. पति-पत्नी दो जने का खर्चा चल जाता है हॉकरी और खेती से.
तीन-चार साल पहले मिसिरजी से बात हुई थी. बोले- अब आंख से कम दिखाई पड़ता है. ऑपरेशन करवाना है, लेकिन करवा नहीं पा रहे, क्योंकि ऑपरेशन के बाद एक माह अखबार नहीं बांट पाएंगे, तो सारे ग्राहक छूट जाएंगे. हमने सुझाया कि एक महीने के लिए कोई दूसरा लड़का रख लें. बोले- नहीं हो पायेगा साहब, कहीं का अखबार कहीं पड़ जायेगा.
मिसिरजी कल मिले, तो मैंने फिर कहा- अब तो ऑपरेशन करवा लीजिये, लेकिन उन्होंने फिर कहा- ग्राहक छूट जाएंगे. हां, लेकिन इस साल मिसेज की आंख का ऑपरेशन करवा दिया है. खर्च हुए 27 हजार रुपये. मैंने फिर कहा- अब अपना भी करवा लें. ग्राहकों से बात करेंगे, तो सब मैनेज हो जायेगा. लेकिन मिसिरजी ने तो कुछ और ही सोच रखा है. बोले- अब बस कुछ महीने और. फिर गांव चले जाएंगे. वहीं रहेंगे. 58 के होनेवाले हैं. लगता है हॉकर का काम छोड़ने के बाद ही आंख का इलाज करवा पाएंगे. अब तो सांस भी फूलने लगी है.
गांव जाने के तर्क बताते हुए बोले- वहां लुंगी बनियान पहने भी घूमेंगे तो कोई टोकनेवाला नहीं होगा. यहां तो शर्ट पैंट के बिना घर से निकलने में शरम आती है. गांव में जो घर में होगा, खा लेंगे. यहां शहर में तो बाजार में 50 चीजें देख कर जीभ लपलपाती है, पर खरीद नहीं पाते. गांव चले जाएंगे तो जित्ता है उत्ते में गुजर हो जायेगी आराम से.
तो क्या बाजार में बढ़ते उपभोक्तावाद से बचने का सिर्फ यही उपाय है कि अपनी आवश्यकताएं कम की जाएं! क्योंकि बाजार के बीच रह कर तो उसके आकर्षण से बचना कठिन काम है. जिनके पास भरपूर पैसा है, उनका तो काफी पैसा जीने की जरूरी चीजों से इतर बातों में ही खर्च होता है.
रोज कड़ी मेहनत करनेवाले करोड़ों लोगों की जितनी आमदनी महीने की होती है, उतना तो बहुत से लोगों का मोबाइल और इंटरनेट का बिल आ जाता है! कल मैंने मिसिरजी से कहा- आज चाय पीकर जाइये. इस पर वे बोले- नहीं साहब, केवि (केंद्रीय विद्यालय) में अखबार देना है अभी. वहां लोग इंतजार कर रहे होंगे.
आज मैंने मिसिरजी के बारे में इसलिए लिखा है, कि कभी आपके यहां भी अखबार देरी से आये, तो यह न सोचें कि हॉकर लापरवाह या बदमाश है. उसकी भी कुछ समस्याएं हो सकती हैं. है कि नहीं.

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