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यह विरोध नहीं, हमदर्दी का इजहार था

आकार पटेल वरिष्ठ पत्रकार बीते हफ्ते सजायाफ्ता आतंकवादी याकूब मेमन और पूर्व राष्ट्रपति व वैज्ञानिक एपीजे अब्दुल कलाम को एक ही दिन दफनाया गया. सरकार ने मेमन को सुपुर्दे खाक किये जाने की मीडिया रिपोर्टिग करने पर रोक लगा रखी थी, जबकि डॉ कलाम की शवयात्रा राजकीय सम्मान के साथ तोपगाड़ी पर निकली (यही वाहन […]

आकार पटेल
वरिष्ठ पत्रकार
बीते हफ्ते सजायाफ्ता आतंकवादी याकूब मेमन और पूर्व राष्ट्रपति व वैज्ञानिक एपीजे अब्दुल कलाम को एक ही दिन दफनाया गया. सरकार ने मेमन को सुपुर्दे खाक किये जाने की मीडिया रिपोर्टिग करने पर रोक लगा रखी थी, जबकि डॉ कलाम की शवयात्रा राजकीय सम्मान के साथ तोपगाड़ी पर निकली (यही वाहन उनके लिए ठीक भी था, क्योंकि उन्हें ख्याति परमाणु बम और मिसाइलों के विकास से मिली थी).
मीडिया ने याकूब मेमन के मामले में सरकार के आदेश का अनुपालनदो वजहों से किया, जबकि वह आम तौर पर अभिव्यक्ति के अपने अधिकार की हिफाजत में बहुत सशक्त ढंग से खड़ा रहता है.
पहली वजह यह थी कि मुंबई का मीडिया सरकार की उस चिंता से सहमत था कि अंतिम संस्कार के समय सजायाफ्ता के समर्थन में जुटी मुसलमानों की भीड़ शहर का ध्रुवीकरण कर सकती है, एक ऐसे शहर का जो सांप्रदायिक हिंसा की अनेक घटनाओं को देख चुका है. दूसरी वजह यह थी कि सम्मान न सही, पर सजायाफ्ता आतंकवादी के लिए जनता द्वारा हमदर्दी जाहिर करना भी अरुचिकर था. कुछ चैनलों ने अपने रुख का एलान करते हुए स्क्रीन पर बैनर लगाये कि वे इस तरह की अरुचिकर घटना का प्रचार-प्रसार नहीं करेंगे.
मेमन के अंतिम संस्कार में कितने लोग शामिल थे, भारतीयों को इसका अंदाजा केवल उन तसवीरों से मिला, जिन्हें अगले दिन कुछ अखबारों ने छापा था. अंगरेजी दैनिक ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की रिपोर्ट के मुताबिक, ‘पूरे मुंबई से करीब 8,000 मुसलमान याकूब मेमन के जनाजे की नमाज में शामिल हुए.’ हमारे लिए सवाल यह है : ‘इतने मुसलमान वहां क्यों जमा हुए थे?’
मुसलमान वहां क्यों जमा हुए, इस पर भारतीय जनता पार्टी के नेता और त्रिपुरा के राज्यपाल तथागत राय ने अपना मत रखा. उन्होंने ट्वीट किया : ‘याकूब की लाश के इर्द-गिर्द जो लोग जमा हुए (रिश्तेदारों और करीबी दोस्तों को छोड़ कर), उन पर खुफिया तंत्र को कड़ी नजर रखनी चाहिए. इनमें से कई संभावित आतंकवादी हैं.’ तथागत राय केवल वही नजरिया जाहिर कर रहे थे, जो कि आम तौर पर महसूस किया जा रहा था कि अगर मुसलमान एक आतंकवादी को मिट्टी देने में शामिल थे, तो यकीनन वो भले लोग तो नहीं थे.
इंडियन एक्सप्रेस ने लिखा कि लोग काफी दूर-दूर से आये थे. ‘अंतिम संस्कार की जगह और वक्त वाले जो व्हाट्सएप्प मेसेज चल रहे थे, उनसे सूचना पाकर याकूब के लिए जो बिल्कुल अजनबी थे, वे भी गम में शरीक होने आये थे.’
रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि वरिष्ठ पुलिस अधिकारी सोशल मीडिया पर नजर रखे हुए थे, ताकि गुस्से की किसी भी चिनगारी का समय रहते पता चल जाये. हालांकि, पुलिस आयुक्त ने कबूल किया है कि ‘भड़कानेवाली कोई हरकत’ नहीं हुई और जो लोग कब्रिस्तान में जमा थे, उनसे साफ कहा गया था कि ‘कोई नारेबाजी नहीं करेगा.’
अगर ये लोग वहां किसी प्रदर्शन के लिए नहीं आये थे, तो फिर मीडिया के बिल्कुल विरोधी रवैये और पुलिस की निगरानी के बावजूद क्यों आये थे? अगर हम पूरे घटनाक्रम को बिना पूर्वाग्रह के और मीडिया द्वारा पेश कहानी से प्रभावित हुए बगैर देख सकें, तो यह समझना आसान है. जिन धमाकों के लिए मेमन को सजा हुई, वह 12 मार्च, 1993 को हुआ था.
उसी साल जनवरी में 500 से ज्यादा मुसलमान (200 से ज्यादा हिंदू) मुंबई में हुए दंगों में मारे गये थे. इसके एक महीने पहले भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्ववाले आंदोलन के नतीजतन बाबरी मसजिद धराशायी कर दी गयी थी.
उस लिहाज से देखें, तो मुंबई का जो धमाका था, वह एक बड़े घटनाक्रम का हिस्सा था और उस हिंसा से जुड़ा था, जिसमें विभिन्न समुदाय के लोग बड़े पैमाने पर शामिल थे. जब हम इनमें मारे गये लोगों को गिने, तो हमें उन लोगों को भी शामिल करना चाहिए जिनका कारोबार बरबाद हो गया, जो जख्मी हुए, जिनका बलात्कार हुआ और जो विस्थापित हुए. यह तादाद दसियों हजार में पहुंचती है.
धमाकों की यही पृष्ठभूमि थी. खुद मेमन की फांसी फूट पैदा करनेवाली थी और इसने काफी जहर घोला. टीवी चैनल उसे फांसी पर न लटकाये जाने के किसी भी विचार की खुल्लमखुल्ला मुखालफत कर रहे थे. इसी बीच नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के हवाले से छपी टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट में कहा गया कि जिन लोगों को सजा-ए-मौत दी गयी, उनमें से 94 फीसदी दलित या मुसलमान थे.
इस रिपोर्ट ने बहुत से मुसलमानों की इस धारणा को और मजबूत किया कि उन्हें अपने मजहब की वजह से सजा दी गयी. यहां तक कि अगर मेमन गुनहगार था, और वह था भी, तो भी राज्यसत्ता उसे उसके मजहब की वजह से लटकाने के लिए बेचैन थी. इस मामले में कोई मुरव्वत नहीं दिखाया जाना भाजपा से जुड़े हत्यारों माया कोडनानी और बाबू बजरंगी के मामले से ठीक उलट था, जो उतने ही गंभीर अपराधों के सजायाफ्ता हैं, लेकिन अभी जमानत पर बाहर हैं.
फिर एक ज्यादा बड़ी हकीकत है, भारत में मुसलमान होने की. इसे समझने के लिए इंटरनेट पर ऐसे किसी लेख के नीचे मौजूद पाठकों की टिप्पणियों को देखें, जिसका ताल्लुक न सिर्फ आतंकवाद से, बल्कि ऐसे किसी भी विषय से हो, जहां मुसलमान को नमकहराम ठहराये जाने का मौका उपलब्ध हो. हमारे अंगरेजीदां मध्यम वर्ग में जिस तरह का गहरा विद्वेष और पूर्वाग्रह मौजूद है, वह बहुत ही डरानेवाला है. हमारे शहरों में मुसलमानों को मकान और नौकरी पाने के लिए जो तकलीफें ङोलनी पड़ती हैं, वह तो और भी बड़ा मसला है.
तो यह है भारत में मुसलमान होने की हकीकत. बीच-बीच में ऐसे लम्हे आते हैं, जब सारी जमा नाइंसाफी ठोस शक्ल ले लेती है. याकूब मेमन को फांसी ऐसा ही एक मौका था. कब्रिस्तान में जो लोग जमा हुए थे, वे वहां विरोध प्रदर्शन के लिए नहीं थे. वे हमदर्दी जाहिर करने आये थे, क्योंकि वे खुद भी सताये हुए हैं.
(अनुवाद : सत्य प्रकाश चौधरी)

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