सीबीआइ ने आय से अधिक संपत्ति के मामले में मायावती को राहत दे दी है. खुद मायावती द्वारा दाखिल हलफनामों के आधार पर बात करें, तो उनकी संपत्ति वर्ष 2007 में 52 करोड़ रुपये थी, जो 2012 में बढ़ कर 111 करोड़ से ज्यादा हो गयी. ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या इस फैसले का कोई रिश्ता 2014 के चुनावों से है?
इससे पहले सीबीआइ आय से अधिक संपत्ति के मामले में मुलायम सिंह यादव और रेलवे घोटाले में पवन कुमार बंसल को भी राहत दे चुकी है. इन मामलों का सच जो भी हो, सीबीआइ के इन फैसलों से यही संदेश जा रहा है कि यह सब कांग्रेस के इशारे पर हो रहा है, क्योंकि अगले आम चुनाव में उसे क्षेत्रीय दलों के सहयोग की जरूरत है. आम धारणा यह बन रही है कि मायावती को राहत एक राजनीतिक फैसला है. गौर करने लायक बात यह भी है कि मायावती के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति के दस साल पुराने मामले को सुप्रीम कोर्ट पहले ही अवैध घोषित कर चुका था.
ऐसे में यह पूछा जा सकता है कि क्या इस मामले को शुरू करने के पीछे भी एक राजनीतिक सोच काम कर रहा था? इन सवालों के आईने में सीबीआइ की आजादी का सवाल फिर अहम हो उठा है. सीबीआइ को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद सरकार इस ‘तोते’ को सीमित आजादी देने के लिए ही तैयार हुई है. इससे सरकार की मंशा सवालों के घेरे में आती है. फर्ज कीजिए अगर इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ मामले में सीबीआइ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘पक्के सबूतों’ के आधार पर दोषी ठहराती है, तो ऐसे माहौल में इस पर कोई यकीन नहीं करेगा, बल्कि भाजपा को बैठे-बिठाये राजनीति के लिए नया हथियार मिल जायेगा.
भाजपा को यह कहने का मौका मिलेगा कि मोदी को ‘राजनीतिक साजिश’ के तहत फंसाया जा रहा है. भाजपा कह सकती है कि जहां मायावती, मुलायम और बंसल के मामले में सीबीआइ सबूत न होने का हवाला दे रही है, वहीं मोदी के खिलाफ फर्जी सबूत तैयार किये गये हैं. किसी संस्था की विश्वसनीयता एक बार दरक जाये, तो उस पर यकीन करना मुश्किल हो जाता है. कुल मिला कर कह सकते हैं कि सीबीआइ की पूर्ण आजादी वक्त की जरूरत है और यह जल्द हो जाना चाहिए.